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इक साधे सब सधे
सागर के समान दिखाई देता है ।
आपके साथ जो छाया रहती है उससे आपको कोई नुकसान नहीं होगा, वह आपकी लेश्याओं की ही परछाई है। इसलिए उस छाया से तनिक भी विचलित न हों । एक तो स्थूल शरीर की परछाई होती है जिसे हम शरीर की तस्वीर कहेंगे और एक सूक्ष्म शरीर की परछाई है जिसे भाव-शरीर की परछाई कहेंगे। यह हमारे भाव-शरीर की ही छाया है । छायाओं की रासलीला
व्यक्ति जब स्वयं को देह से भिन्न देखता है, तो उसके लिए देह भी एक छाया ही बन जाती है। देह का दृष्टा विराट् होकर जीता है । देह का जो आकार है, उससे भी विशाल होकर जीता है। अच्छा होगा, अपनी सजगता के प्रति और सजग हों। स्वयं को ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त दैवीय सत्ता और मुक्त आत्मा से जोड़ें।
पहले चरण में अतिमनस् होकर मन की विपश्यना करें। विचारों को देखें, वृत्तियों को देखें, उनसे स्वयं को अलग देखें और उनके प्रति तटस्थ रहें । दूसरे चरण में हृदय में आएं । हृदय में परमात्म-सत्ता का स्मरण करें, अनुभव करें, अहोभाव से उसमें डूबें । तीसरे चरण में अपने मस्तिष्क में आ जाएं। मस्तिष्क के आकाश में, इस भीतर के शून्य में प्रविष्ट हो जाएं । और फिर मुक्त हो जाएं इस क्षेत्र से भी। स्वयं को ऊर्ध्व आकाश की ओर उठा दें। दैवीय तत्त्वों से एक लय हो जाएं । दैवीय शक्ति से आप स्वयं सम्बद्ध हो जाओगे। वापस लौटोगे तो दैवीय होकर, प्रकाश होकर । तब परछाई नहीं होगी, हम स्वयं होंगे। हममें देवत्व होगा।
जब मैं स्वयं को सौंदर्य, प्रतिष्ठा, मेधा और प्रतिभा में अन्य लोगों से पीछे पाती हूँ तो मन अत्यंत खिन्न हो जाता है और जीवन नीरस लगता है। कृपया, मार्गदर्शन दें।
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