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देह में देहातीत
जीवन को कभी भी प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा में नहीं उलझाना चाहिए । हम स्वयं के मौलिक व्यक्तित्व के विकास में विश्वास रखें । तुलना करने में तो व्यक्ति प्राय: अपने को छोटा ही पाता है
और इसी से मन में आत्म-हीनता की ग्रंथि निर्मित होती है। अपने पड़ोस में चार मंजिला भवन देखकर हीनता आती है, वहीं दूसरी ओर झोंपड़ी देखकर संतुष्टि भी होती है। निश्चित ही अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। अपनी मेधा का, प्रतिभा का, सौन्दर्य का विकास करना चाहिये, लेकिन प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा से नहीं। आप अपने अन्तसौंदर्य का विकास करें। यहाँ ध्यान के माध्यम से आपकी प्रतिभा और मेधा भी निखर जाएगी। चेहरा सुन्दर हो या न हो, हृदय तो सुन्दर हो ही जाएगा। आप किसी की बात काट सकें या न काट सकें, पर लोग आपकी बात अहमियत के साथ सुनें यह क्षमता तो आ सकती है। मनुष्य की प्रतिभा और मेधा भीतर छिपी हई है, कंठित है। उसी को जगाने के लिए ही ध्यान का मार्ग है। मेधा और प्रतिभा का जागरण ही ध्यान का व्यावहारिक परिणाम है । मन का सौन्दर्य चेहरे को सुन्दर बनाता ही है। मन में तेजस्विता आ रही है, तो वह चेहरे पर प्रगट होगी ही। व्यवहार में, विचार में, सबमें वह तेजस्विता आएगी। तुम प्रतिभाहीन नहीं हो । प्रतिभा दबी हुई है। अपनी प्रतिभा को उजागर करने के प्रति सजग बनो, तो प्रतिभा निखर ही आएगी। ध्यान का कार्य है व्यक्ति का मौलिक व्यक्तित्व उजागर करना। वह मौलिक व्यक्तित्व जो भी है, जैसा भी है, हमारी प्रतिभा का ही उजागर होना हुआ। आप निरंतर प्रयास करते रहिए ईश्वर ने चाहा तो सदपरिणाम अवश्य मिलेंगे। वैसे मेरी सेवाएँ तैयार हैं, वैसे जब चाहें संपर्क कर सकते हैं।
- स्पंदन-शक्ति के स्पंदन की अनुभूति के पश्चात् परम चैतन्य-शक्ति की अनुभूति किस प्रकार की जानी चाहिए और अनहद नाद की ओर कैसे बढ़ा जाए । कृपया मार्गदर्शन दें।
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