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कर छोड़ रहा है । नपुंसकता है यह ! पत्नी ने कहा, मुँह से ऐसा कहना सरल है, कोई करके दिखाए तो पता चले। और तत्क्षण दीक्षा घटित हो गई । धन्ना खड़ा ही हो गया । क्षण में जीवन बदल गया । दृष्टि बदल गई । भाव बदल गया । धन्ना धन्य हो गया ।
इक साधे सब सधे
भर्तृहरि, वाल्मीकि जैसे लोग ऐसे ही बदले । उनकी दीक्षा को मैं हृदय-परिवर्तन की संज्ञा दूंगा। यह परिवर्तन ही दीक्षा की आत्मा है । तुम कुछ बदले नहीं; तुम्हारी अन्तर्दृष्टि खुली नहीं, लेश्याएँ निर्मल हुई नहीं; अन्तश्चक्र सक्रिय हुए नहीं, तो उसे तुम दीक्षा भले कह दो, वह दीक्षा बस, दीक्षा का व्यवहार भर है ।
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तुम्हारे जीवन का असली गुरु वह, जिससे तुम बदले, तुम ऊँचे उठे । फिर चाहे वह व्यक्ति कोई भी क्यों न हो । आकाश में उड़ता पक्षी भी तुम्हारा गुरु हो सकता है और सागर में उठती लहर भी तुम्हारी गुरु हो सकती है । मैंने तो पत्तों पर भी खिलावट की ऋचाएँ पढ़ी हैं, चिड़ियों की चहचहाट में भी आयतें सुनी हैं, आकाश के शून्य में भी अपनी अभीप्सा को जगते और तृप्त होते हुए पाया हैं । गुरुत्व के सूत्र प्रकृति के कोने-दर- कोने में बिखरे पड़े हैं । जिससे तुम कुछ सीख गये, हो गये, बदल गये, वही तुम्हारा गुरु ।
हर्मन हैस का उपन्यास 'सिद्धार्थ' बड़ा प्रीतिकार लगा । बुद्धत्व का फूल कहाँ-कैसे जाकर खिल जाता है, कहा नहीं जा सकता । दीक्षा स्वयं एक चमत्कार है, बस, घटित होनी चाहिये ।
“आप कहते हैं कि मैं किसी का गुरु नहीं, कोई मेरा शिष्य नहीं ।" सभी आत्मवान् बने, मेरे पास आने वाले के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण रहता है 1 शिष्य वह बनाता है, जिसे या तो अपनी जमात बढ़ानी हो, या अपना नाम फैलाना हो या अपनी सेवा करवानी हो; मेरी सेवा की व्यवस्था प्रकृति स्वयं करती है। मुझे किसी से सेवा थोड़ी, करवानी है । अगर मैं कभी किसी की सेवा ले लूँ, तो यह महज सामने वाले के आत्म- प्रमोद के लिए । मैंने उसे इनकार नहीं कर रखा है, महामार्ग पर स्वीकार कर रखा है, बस इसलिए सेवा स्वीकार कर लेता हूँ । शेष तो जिसने अपने आपको ही परम शून्य को समर्पित
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