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अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा
कई गुरुजन, भले ही उनमें शिष्य होने की भी योग्यता है या नहीं, पता नहीं, पर गुरु का ओहदा पाने के लिए दीक्षा का वातावरण बना ही डालते हैं । मेरी समझ से, अगर तुम जिस चीज की दीक्षा दे रहे हो, उसे तुम स्वयं ही उपलब्ध नहीं हो, तो अंधा अंधे का मार्गदर्शन न करे । तुम बगैर शिष्य के ही गुरु हुए सही, पर किसी के साथ नाइंसाफी तो नहीं होगी। उसकी श्रद्धा तो विचलित और विखंडित नहीं होगी। लोग मन्त्र-दीक्षा देते हैं, कान में कोई मन्त्र सुनाकर उसे अपना शिष्य घोषित कर देते हैं। कान में मन्त्र फूंकने से कोई जीवन बदला है?
__ मैं देखता हूँ संत लोग किसी के घर जाते हैं और जबरदस्ती उसे कोई संकल्प दिला देते हैं। कोरे संकल्प देने से, नियम में बाँध लेने भर से मन से उस चीज को निकाला जा सकता है? प्रगट में तुम भले ही छुड़ा दो, अप्रकट में तो, भीतर उसकी जाजम बिछी रही होगी। मन में तो मकड़जाल बरकरार रहेगा। मेरे जाने, दीक्षा देने की बजाय, दीक्षा का दूसरा चरण घटित हो सके, दीक्षा ली जाये । स्वत: दीक्षा स्वीकार की जाये। जो दीक्षा आत्म-प्रेरित होती है, स्वयं की भावना से जो दीक्षा स्वीकार की जाती है, संकल्प स्वीकार किया जाता है, वह कामयाबी का द्वार खोल लेगा। स्वयं की भावना उसमें मुख्य होती है। यह पूर्वापेक्षा श्रेष्ठ है। मैं घटित दीक्षा को इसलिए महत्त्व देता हूँ क्योंकि केवल संकल्प से जीवन रूपान्तरित नहीं होता । संकल्प से हम प्रवृत्ति से बच जाएंगे, पर वृत्ति फिर भी बरकरार रहेगी। वृत्तियों से तुम्हारा संघर्ष जारी रहेगा। दीक्षा का तीसरा रूप है उसका घटित होना – जैसे रत्नावली
और तुलसीदास के बीच घटित हुआ । रत्ना के दो शब्द एक जीवित शास्त्र का काम कर गये और तुलसी की मूछित चेतना पलट ही गई। कोई गुरु :नहीं, फिर भी घटित हुई।
पत्नी की आँख से दो आँसू, स्नान करते धन्ना के कंधे पर पड़े। धन्ना चौंका; उसकी पत्नी और रोये ! पत्नी ने कहा, मेरा भाई संन्यास लेने जा रहा है । उसके बत्तीस रानियाँ हैं, रोज एक-एक का त्याग किया जा रहा है । धन्ना ने कहा, ऐसे कोई त्याग होता है ! मन में पत्नी का भाव बचा हुआ है, सो एक-एक
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