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और अगर लगे कि जिनके साथ जी रहे हो, वे केवल भारभूत हैं, छातीकूटा लगते हैं, तुम्हारे मार्ग के बाधक हैं, तो एकला चलो रे की नीति को जीवन में चरितार्थ कर लेना । अपने स्वयं के सहयोगी, स्वयं के गुरु स्वयं बन जाना और जैसा कि बुद्ध ने कहा अप्प दीवो भव, तुम अपने दीप स्वयं ही
बन जाना ।
इक साधे सब सधे
पूज्यवर महाराज सा, आप कहते हैं मैं किसी का गुरु नहीं कोई मेरा शिष्य नहीं, दीक्षा दी नहीं जाती, ली नहीं जाती सिर्फ घटित होती है, फिर सद्गुरु क्या करते हैं ?
एक प्रश्न और : शक्तिपात जरूरी है ? यह जानते हुए कि शक्तिपात स्थाई नहीं है हमारी रुचि इसमें क्यों रहती है ? क्या Grace (प्रसाद) पूर्ण नहीं ? दीक्षा के तीन रूप हैं : एक, जो दी जाती है; दूसरी, जो ली जाती है और तीसरी जो घटित होती है । तीनों क्रमश:, उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । दीक्षा का घटित होना जीवन की सबसे बड़ी क्रान्ति है । जीवन में पहला सबसे बड़ा चमत्कार है । घटित हुई दीक्षा जीवन को अध्यात्म का, चेतना का, प्रज्ञा और प्रतिभा का, ऊर्ध्वारोहण का, साक्षात्कार और विकास का मौलिक आधार देती है ।
दीक्षा, जो दी जाती है, वह तो कोई भी दे दिया करता है । देने वाला कितना योग्य है, स्वयं उपलब्ध है या नहीं, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता । ऐसे दीक्षा-दाता दिनरात संसार की, जीवन की क्षणभंगुरता और दुःख - बहुलता के उपदेश देते रहते हैं, कई लोग उनकी बातों से प्रभावित भी हो जाते हैं और इस तरह वे दीक्षित हो जाते हैं । स्वयं बुद्ध ने अपने भाई तक को ऐसी ही दीक्षा दे दी थी। बुद्ध ने दीक्षा लेने को कहा, भाई सम्मान और लज्जावश इन्कार न कर सका और दीक्षित हो गया। कहने को दीक्षा जरूर हो गई, पर बेचारा भीतर-ही-भीतर जलता रहा । मन में संसार सुगबुगाता रहा । मन काम की ओर गतिशील बना रहा ।
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