________________
अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा
'एकला चलो रे' वाली स्थिति कब उचित है, क्या साथ में चलो रे वाली स्थिति ही सदैव उचित है?
'एकला चलो रे' रवीन्द्रनाथ टैगौर की दी हुई एक सुंदर पंक्ति है, लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं पूँज सकता । प्रकृति में कोई भी वस्तु स्वयं में परिपूर्ण नहीं है। हम सभी एक-दूसरे के परिपूरक हैं। कोई ऐसा आयाम हो सकता है जिसमें मेरी पहुँच अधिक हो और कोई आयाम ऐसा हो सकता है, जिसमें आपकी पहँच ज्यादा हो । क्यों न हम अपने साथ ‘साथ चलो रे' वाला सूत्र अपना लें जिससे एक-दूसरे की योग्यताओं का अधिकाधिक उपयोग कर मानवता की सेवा कर सकें। साधना का परिणाम एकान्तवास नहीं, अपितु एकान्त से निष्पन्न मानवता की सेवा है । मुझे अपने एकाकीपन का बोध है, लेकिन इस एकाकीपन के साथ जितनी औरों की सेवा की जा सके, जरूर की जानी चाहिए। सेवा भी एक आनन्द है।
___ हमें साथ चलना चाहिए। लेकिन ऐसा महसूस हो कि जिनके साथ हम जी रहे हैं हमारे संत्रास और बढ़ते जाते हैं तो उनसे स्वयं को ऊपर करो, निर्लिप्त करो। साथ देने वाला अगर परा सहभागी मालम नहीं पड़े तो भी चिन्ता मत करो। अंधेरी रात में पूनम का चाँद न मिले तो तारों से ही काम चलाएंगे। अंधेरे से तो अच्छा है । इसके बावजूद तारे भी काम न दें तो अपने दिल का दीपक जलाएंगे और उसी की रोशनी में आगे बढ़ते जाएंगे।
तुम्हारे लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले सहयोगी मिलते हों, तो ‘संग चलो रे' वाली नीति अपनाना । आखिर मन की बात करने वाला भी चाहियेगा। एक-दूसरे को प्रोत्साहन देने वाला भी चाहिये। तुम कभी फिसलते से लगो, तो सहयोगी तुम्हें थाम ले।
एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना, साथी हाथ बढ़ाना ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org