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हृदय के खुलते द्वार
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तुम्हारी आँख लैला को नहीं पहचान सकती, उसमें वह रसधार नहीं है जो मजन में है। हृदय की आँखें खोलो तभी संसार को पहचान पाओगे अन्यथा परिचय नहीं होगा। जब मैंने संन्यास लिया तब अपने बुजुर्गों से यही जाना-समझा कि सबका त्याग कर दो, सबको छोड़ दो, यही मुनित्व है। भगवान की कृपा कि उसने हृदय में यह समझ दी कि सबको अपना लो, सारे जगत को अपना लो। सारे जगत के साथ तुम्हारे अन्तर्संबंध हैं। तुम एक अकेले न रहो बल्कि सारे जगत का जीवन बन जाओ। पहले तो आसक्ति को छोड़ने के प्रयास किए जाते थे, फिर पता ही न चला कि आसक्ति कहाँ चली गई। अब तो लुटा रहा हूँ, लुट रहा हूँ, तुम जितना अधिक लूट सकते हो, लूटो । लुटाना ही आनन्द बन गया है। चाहता हूँ कि मैं मैं न रहूँ, अन्दर जो अखंड ज्योति है वही साक्षात् रहे।
प्रभु करे आप सभी अपनी ओर से करुणा के फूल बाँटें । प्रभु करे आप अपना प्रेम एक दूसरे को प्रदान करें। जब भी विपरीत वातावरण बने, अपने हृदय में चले जाओ। कुछ देर वहीं रुके रहो ताकि वह विपरीत वातावरण तुम्हारे हृदय में असर न करे, वह मन और बुद्धि के दरवाजों तक पहँचे और वहीं से वापस लौट जाए। हमें तो जीवन का आनन्द चाहिए और वह हृदय में ही घटित होगा।
इच्छा केवल माटी में मिल, तव चरणों के निकट पर्छ । आते-जाते कभी तुम्हारे, श्री. चरणों से लिपट पडूं।
किसी हार्दिक व्यक्ति की इससे ज्यादा और क्या प्रार्थना होगी, और क्या इच्छा होगी। हृदयवान की सारी प्रार्थनाएँ हृदय में समाहित होती हैं। उसकी सारी इच्छाएँ हृदय में आकर तिरोहित हो जाती हैं। श्रीचरण ही उसके हृदय की प्रार्थना बनते हैं और वे ही उसकी इच्छा ।
इच्छा केवल रज-कण में मिल तब चरणों के निकट पडूं।
आते-जाते कभी तुम्हारे श्री चरणों से लिपट पडूं।
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