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________________ देह में देहातीत शरीर स्वयं एक सौगात है। हम इसका उपयोग करें । इसमें मूर्च्छित न हों । इसकी स्वच्छता और स्वस्थता पर ध्यान दें, पर इसके श्रृंगार में अपनी जीवन-शक्ति को उलझाकर न रखें। व्यक्ति शरीर के प्रति जितना आसक्त/मोहित होगा, वह उतना ही शारीरिक होगा। अनासक्ति विदेह-जीवन के रास्ते खोलती है। अतिमनस् व्यक्ति देह से ऊपर उठ ही जाता है। मन मौन रहे, हम अन्तर-दशा में स्थित रहें, तो देह के धर्म हम पर हावी नहीं होंगे। कभी कोई इन्द्रिय-धर्म, शरीर-धर्म काम कर भी जाये, तो वह क्षणिक होगा। बालू में खींची लकीर की तरह। रोग तो शरीर का धर्म है, शरीर सड़न-गलनशील है। सहज चिकित्सा से वह स्वस्थ हो जाए, तो स्वीकार्य । ज्यादा छातीकूटा मत करो। तुम स्वस्थ रहो, मन से प्रसन्न रहो, शरीर पर उसकी स्वस्थता का स्वत: प्रभाव पड़ेगा। स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर के लिए प्राथमिक चरण है। देह में रहो, देह के मत बनो । विदेह हुए महानुभावों को भावपूरित नमस्कार । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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