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इक साधे सब सधे
इसके परिणाम भी देखता है । लेकिन शरीर के स्वभाव से अलग होना सामान्य बात नहीं है । हमने पाया है कि तीर्थंकर जिन्हें जन्मजात अवधि-ज्ञान होता है वे भी शरीर के धर्म से अलग नहीं चल पाते । तीर्थंकर के विवाह ही नहीं होते, बल्कि सौ-सौ संतानें तक होती हैं। अपने शरीर के स्वभाव और परिणामों से मुक्त होना इतना आसान नहीं है जबकि वे अवधि-ज्ञान के, एक विशिष्ट ज्ञान के धारक ! किसके मन में कौन से विचार आ रहे हैं इसके भी दृष्टा ! लेकिन फिर भी जानते हैं इस शरीर का स्वभाव । वे लोग धन्य हैं जिन पर शरीर का प्रभाव और शरीर का धर्म असर नहीं करता। वे देहातीत होते हैं, विदेही होते
____ अध्यात्म का धर्म यही कहता है तुम्हें शरीर के जो परिणाम दिखाई देते हैं उन्हें उनसे अलग होकर देखो। उनके प्रति सजग रहो, उनके दृष्टा बनो। आचार्य कुन्दकुन्द ने एक बहुत प्यारी-सी बात कही "क्षायिक सम्यक्त्व जीव ! उसके द्वारा चाहे चेतन द्रव्यों का सेवन हो या अचेतन द्रव्यों का सेवन, कर्मों की निर्जरा ही होगी।" वह मुक्त ही होगा ! आत्म-द्रष्टा स्वयं को शरीर से अलग समझेगा, जानेगा, देखेगा और अपना जीवन जीयेगा। वह भोक्ता भी बन गया तो भी मुक्ति की राह ही खलेगी। इसीलिए अध्यात्म-पुरुष के लिए कोई बीमारी नहीं है, रोग रोग नहीं है, भूख भूख नहीं है – ये सब शरीर के धर्म हैं।
शरीर के प्रति आसक्ति? केवल उतनी ही होनी चाहिए जिससे आप अपना कल्याण कर सकें। कहीं ऐसा न हो कि शरीर आप पर हावी हो जाए और शरीर में ही फँसकर रह जाएँ। सभी तो शरीर में उलझे हुए हैं। कभी-कभी शरीर अपने स्वभाव में आ जाता है, लेकिन तब भी अपने मौलिक स्वभाव का सदा स्मरण रखो कि ये दूसरी चीजें तुम पर हावी न हों। उत्तराध्ययन का सूत्र है ‘सरीर माह नावत्ति जीवो वच्चई नावियो, संसारो अण्णवो वुतो जं तरंति महेसिणो ।' शरीर नौका के समान है, जीव नाविक के रूप में है जिसे महर्षि जन, प्रज्ञा से सम्पन्न लोग पार कर जाते हैं। लेकिन नौका को नाविक के कंधे पर चढ़ा दें तो कैसे पार करेंगे। नाविक नाव में हो, नाव नाविक के नियंत्रण में हो, तो ही नौका पार लगने का साधन है, नौका नाविक पर आ जाए, तो जन्म-मरण के भंवर में फंस गए, डूब गए, उलझ गए।
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