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________________ देह में देहातीत जीना है खुद को जीओ। - क्या क्रोध का सम्बन्ध स्वस्थता-अस्वस्थता से है ? क्या स्वस्थता और अस्वस्थता का संबंध केवल शारीरिक नहीं है । क्रोध स्वयं एक बीमारी है। जहाँ बीमारी है वहाँ स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है ? कई महापुरुषों ने बीमारियों से ग्रसित होकर शरीर त्यागा जैसे रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रामचन्द्र डोंगरे आदि । क्या इसका कारण इन लोगों का ध्यान शरीर से हटना या शरीर से हटकर जीवन जीना था अर्थात् शरीर के प्रति आसक्ति होनी चाहिए या नहीं? आसक्ति आवश्यक हो तो कितनी? महापुरुष स्वयं तो ग्रसित हुए नहीं, न ही बीमारियों को निमंत्रण दिया। अतिथि की खातिरदारी तो करनी ही पड़ती है । उसे धक्का देकर निकाला नहीं जा सकता। अध्यात्म-पुरुष के लिए शरीर की बीमारियाँ मेहमान ही हैं, क्योंकि उनके लिए शरीर धर्मशाला है । ये बीमारियाँ, ये विचार, ये विकल्प इस धर्मशाला में आने-जाने वाले मुसाफिर हैं। आते हैं, चले जाते हैं। सबका अपना-अपना धर्म । शरीर के धर्म को कब तक निभाते रहेंगे, कब तक उसका साथ देते रहेंगे। जिसने अपने शरीर में जीते जी अपनी मृत्यु को देख लिया उसकी शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रह पाएगी । जो शरीर को ही सब कुछ मानता है, उसी की शरीर के प्रति आसक्ति रह सकती है और जिसने शरीर और आत्मा या शरीर और चेतन-तत्त्व को अलग-अलग जान लिया, उसके लिए शरीर में बीमारियाँ आएँ या न आएँ वह तटस्थ ही रहता है। शरीर तो अन्तत: त्याज्य है। इसके प्रति चाहे जितना मोह रख लो अन्तत: इसे टूटना ही है । इसे खंडहर होना ही है । शरीर का वैभव, शरीर की नेमत चाहे जो हो यह श्मशान का घर है। वहीं जाना है इसे । एक साधक निश्चित ही स्वयं को शरीर से अलग देखता है। न केवल शरीर को अपित् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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