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चेतना का रूपान्तरण
अकथ कहानी प्रेम की, कछु कहि न जाय । गूंगे केरी सरकरा, खाई और मुसकाय ।।
प्रेम का मार्ग है ही ऐसा – नि:स्वर, फिर भी संगीत से सराबोर । मौन, फिर भी मुखर । मिटना, फिर भी पाना । मृत्यु, फिर भी अमरत्व । प्रेम यानी बूंद समानी समुद्र में । पहले बूंद समुद्र में समाने को आतुर होती है, फिर समुद्र समाना बूंद में । फिर समुद्र बूँद में चला आता है। पहले कुंभ कूप में, फिर कूप कुंभ में । मार्ग ही ऐसा है।
'प्रेम न बाड़ी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय ।' प्रेम की कोई खेती नहीं होती। यह कोई बाड़ी में नहीं उपजता। करने जाओ तो इसकी कृषि नहीं होती। यह तो अपने आप ही खिलने वाला फूल है। प्रेम कोई बाजार में बिकता नहीं है। बाजार में प्रेम के नाम पर शरीर खरीदा-बेचा जा सकता है, पर प्रेम कोई वस्स थोड़े ही है कि खरीद लोगे, बेच दोगे। प्रेम तो हृदय की सुवास है, हृदय की झंकार है, हृदय का आनन्द है । हृदय ही प्रेम का आधार है । यह खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं है।
मन से उपजा प्रेम काम है, विकार है; हृदय से उपजा प्रेम जीवन का शृंगार है, भावना है, भक्ति है, समर्पण है। यह प्रेम मौन है, कुर्बानी है। यही प्रेम, प्रेम है । बदले में कुछ पाना चाहे, तो वह प्रेम कहाँ हुआ। वह तो प्रेम का सौदा हुआ, स्वार्थ हुआ। प्रेम बदले में कुछ पाना नहीं चाहता, व्यवस्था भी नहीं, आदेश भी नहीं, यह तो अनुशासन हो गया। प्रेम तो केवल लुटना जानता है, लूटना नहीं । मिटना जानता है, मिटाना नहीं । प्रेम स्वयं अमृत है, पर यह अमृत बनता है ज़हर से । प्रेम जहर पीता हैं । जहर पीकर अमृत लौटाता है । यही तो प्रेम-मार्ग की खासियत है। मीरा ने ज़हर ही पीया। लोगों ने उसके प्रेम की परीक्षा ज़हर से ही ली। यह तो मार्ग ही कसौटियों से भरा है और जिसमें अगर यह प्रेम परमात्मा से जुड़ा हो, तब तो उसका रूप ही अनेरा हो गया। 'राजा परजा जेहि रुचै सीस देय लै जाय ।' देखा, प्रेम क्या कुर्बानी चाहता है । छोटे-मोटे में राजी होने वाला नहीं है ये। शीष ही चाहता है। शीष देओ और प्रेम ले जाओ। नमक और पानी, दूध और मिश्री एक हुए बगैर,
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