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इक साधे सब सधे
एकरूप-एकरस हुए बगैर प्रेम अपना वास्तविक रूप ले ही नहीं पाता।
प्रेम तो कुर्बानी का पर्याय है । प्रेम तो सीधी मृत्यु है । छलांग लगानी है सागर में – अरूप, अनमोल मोती को पाने के लिए। अपने प्राणों की वीणा को उस अथाह गहराई में ले जाना है, जहाँ स्वरहीन तारों के गीत अनादिकाल से गाए जाते हैं । प्रेम तो अपने आखिरी छोर में अनंत के स्वर से अपना स्वर मिला लेता है। और जब ये वीणा अपना आखिरी गीत गुनगुनाकर नि:स्वर, नि:शब्द, मौन हो जाए तो उसे प्रभु के चरणों में रख दिया जाए। यह शीष चढ़ाने की बात हुई।
___ जब शीष ही चढ़ा दिया, तो फिर चढ़ाने को बचा ही क्या ! शीष चढ़ता है श्रद्धा में । अश्रद्धा में तो शीष कतराता है, अकड़ कर रहता है; श्रद्धा में लुट ही जाता है । 'राजा परजा जेहि रुचै सीस देय लै जाय ।' प्रेम तुम्हें चाहिये; आओ, प्रेम तैयार है। उधार में नहीं मिलेगा। नगद चाहिये। ‘सीस देय लै जाय ।' खुद को चढ़ाओ और मुझको ले जाओ। मैं बंजारा, प्रेम का सौदागर, प्रेम देता हूँ, इस हाथ देओ, उस हाथ लेओ। यह मार्ग तो कृष्ण का मार्ग है। मीरा का मार्ग है । आनन्द का मार्ग है, अहोभाव का मार्ग है ।
कृष्ण का मूल मार्ग तो प्रेम का ही मार्ग है । ज्ञान और संन्यास, युद्ध और कर्मयोग तो गीता की गाथाओं में वे भले ही कह गये हों, उनका जीवन तो प्रेम की ही रासलीला रहा। इसीलिए तो कहा गीता में कि तुम मुझसे प्रेम रखो, मैं तुम्हारे योगक्षेम को, तुम्हारे कुशलक्षेम को स्वयं वहन करूंगा। कबीर कहते हैं 'जिहि घट प्रीति न प्रेम रस' जिसके जीवन में प्रेम-प्रीति का रस नहीं है, उसका तो जीवन ही नीरस है। वेद कहते हैं वह रस रूप है । प्रेम रस है । अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं, तो जीवन नीरस ही हुआ। घट में प्रेम नहीं और जिह्वा पर राम नहीं, तो जन्म लेकर भी अजन्मे ही रहे । जन्म ही व्यर्थ गया।
जीभ रस का स्वाद लेती है। जीभ हर स्वाद का रस देती है। राम से बढ़कर रस कौन-सा; भजन से बढ़कर गान कौन-सा । रसना तो राम से जोड़ो। रसना का रस ठेठ हृदय तक पहुँचेगा । हृदय में प्रेम और रसना पर राम, जन्म
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