________________
चेतना का रूपान्तरण
m
को, जीवन को सार्थक ही करेंगे। डूब रहे हो, तो भी एक बार तो तिर ही जाओगे। तुम्हारी रसना ही तुम्हें तिरा देगी, प्रेम-रस ही तुम्हारे जीवन को पहाड़ी झरने-सा सुकून दे देगा।
प्रेम को जीओ । प्रेम का विस्तार करो । प्रेम अहिंसा का ही, करुणा का ही, हार्दिकता और भाईचारे का ही सार है । आज घर-घर में, समाज-समाज में प्रेम के गीत गाये जाने चाहिये । प्रेम है तो एकता है । प्रेम है तो एक-दूसरे के लिए त्याग और कुर्बानी है। प्रेम है तो एक-दूजे के बीच माधुर्य है । प्रेम है तो सहयोग और कृतज्ञता है। प्रेम स्वयं पुण्य है, प्रेम स्वयं प्रसाद है । प्रेम स्वयं प्रणाम है, प्रेम स्वयं आशीष है । जीसस कहते हैं प्रेम ही परमात्मा है, परमात्मा ही प्रेम है । प्रेम और परमात्मा दोनों एक-दूसरे के बिम्ब-प्रतिबिम्ब हैं।
तुम ध्यान कर रहे हो; पर अपने ध्यान को प्रेम से अलग मत करो। प्रेम तो खुद ध्यान का परिणाम है । काम और प्रेम का कहीं कोई संबंध नहीं है। काम तो उफान है, उत्तेजना है, विकृति है। प्रेम तो तुम्हें सौम्य बनाता है, आत्मा का सामीप्य देता है । तुम्हें अपने प्रेम के बदले में क्या मिलता है, यह मत देखो। तुम बस अपनी ओर से प्रेम दो । प्रेम ‘देकर' ही प्रसन्न होता है, सार्थक होता है। संचय कृपणता है। प्रेम कृपण नहीं, कंजूस नहीं। प्रेम तो सागर है, विस्तार है । देकर आनन्द मनाओ। देना ही प्रेम की परिभाषा है।
'अकथ कहानी प्रेम की।' अकथ्य है इसकी कहानी। प्रेम तो बस जीना है । 'गूंगे केरी सरकरा।' प्रेम का स्वाद, प्रेम की मिठास कैसी है, तो कहा कि गूंगे केरी सरकरा – गूंगा कैसे कहेगा कि कैसा स्वाद है गुड़ का, शक्कर का। वह तो बस खा रहा है और मुस्करा रहा है । गूंगा बोल नहीं सकता, पर मुस्कान ही उसकी भाषा है, खीज ही उसकी भाषा है । खाता है और मुस्काता है, यानी तृप्ति आ गयी। मजा आ गया। यह परम स्वाद रहा। मुस्कान ही स्वाद की अभिव्यक्ति है । प्रेम का स्वाद ऐसा ही है । पीड़ा है तो भी, प्रेम की पीड़ा अपलक, अनवरत सुकून ही देती है । अहोभाव से ही भरती है । तुम तो बस प्रेम को आत्मसात् हो जाने दो, परमात्मा स्वयं तुम्हें आत्मसात् होते जाएंगे। प्रेम आखिर परमात्मा का प्रतिबिम्ब ही है, परछाई ही है। छाँह को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org