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इक साधे सब सधे
से हुआ, पर उस मिलन को मिलन कैसे कहा जाये, जो हमारी प्यास को, हमारी अभीप्सा और उत्कंठा को तृप्त न कर पाये, बुझा न पाये।
एक अभीप्सा थी मन में कैसे खुद को पाऊं, विगलित हो अंधकार कहीं से ज्योति-किरण पाऊं। तुम, आए लेकर उजाला रोम-रोम सुलग उठा पर, कैसी शीतलता छाई सब शांत, निर्मल है कहाँ से पाई, यह तरुणाई ! वैभव-विलास के आंगन में यह वैराग्य कहाँ से आया, वीतराग तुम, पावन वेश तुम्हारा अहोभाग्य, अहोभाव
तुम ही ने यह दीप जलाया। हमारी अभीप्सा ही संयोगों का निर्माण करती है, संयोगों के ताने-बाने बुनती है और फिर हमारी अभीप्सा जिससे पूरी हो सके उसे मिला देती है, तो अचानक मुलाकात हो जाती है, ठीक ऐसे ही जैसे किसी राहगीर को कोई मोती मिल जाये, मरुस्थल में फूलों की सुवास मिल जाये, पानी के प्यासे को पीने को अमृत मिल जाये।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय ले जाय।। जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहिं राम । ते नर इस संसार में, उपजे भए बेकाम ।।
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