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मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत
है । सूक्ष्म से स्थूल के बीच का सेतु है, संयोजक है, संवाहक है | शरीर-स्थूल है, महाप्राण सूक्ष्म है । महाप्राण से ही शरीर संचालित है । महाप्राण और शरीर दोनों के बीच प्राणधारा को जोड़ने का काम श्वास का है । शरीर के व्यर्थ के कार्बन-परमाणुओं को भीतर से बाहर उलीचना और बाहर के जीवन- पोषक ऑक्सीजन-परमाणुओं को भीतर तक पहुँचाना श्वास का यही काम है, यही उसका कर्मयोग है ।
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श्वास भीतर के जगत् की ओर जा रही पगडंडी है । तुम इसके सहारे भीतर तक उतर सकते हो । श्वास सूक्ष्म है, पर ध्यान के लिए तो श्वास भी स्थूल ही है । श्वास के जरिये तुम भीतर की ओर यात्रा करते हो । श्वास पर स्वयं को केन्द्रित करके स्थूलों में जो सबसे सूक्ष्म है, उस पर तुम स्वयं को ला रहे हो । श्वास पर जैसे-जैसे सजगता बढ़ेगी, श्वास पर एकाग्र होने की जैसे-जैसे पकड़ बढ़ेगी, श्वास पर तुम्हारा केन्द्रीकरण और त्राटक होगा, मन की उच्छृंखलता पर भी स्वत: ही नियन्त्रण होता लगेगा । केन्द्रीकरण के पहले चरण में तो मन और भड़केगा, भटकता हुआ लगेगा, जैसे किसी बन्दर को पकड़ा जा रहा हो, पर श्वास पर होने वाली एकाग्रता मन को एकाग्र कर देती । श्वास-विजय दूसरे अर्थों में मनोविजय का ही सूत्र है ।
“जब गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं, तो श्वास क्षीण और शरीर जड़ होने लगता है । " श्वास का सम्बन्ध शरीर के साथ है, क्योंकि श्वास शरीर का प्राण है । तुम्हारे भीतर प्राणों का प्राण विराजमान है। श्वास तो स्थूल प्राण है श्वास कोई जीवन थोड़े ही है। श्वास तो जीवन की अभिव्यक्ति भर है । ध्यान में श्वास के जरिये प्रवेश करते हैं, पर ध्यान में प्रवेश ही तभी होता है, जब तुम शरीर-भाव, समाज-भाव, संसार-भाव, मनोभाव से स्वयं को विलग देखो । शरीर से तुम्हारा तादात्म्य शिथिल होता है, तो शरीर तुम्हें स्थूल या सूक्ष्म कुछ भी महसूस हो सकता है । शरीर का सूक्ष्म-स्थूल, भारी - हल्का महसूस होने के मायने ही यह है कि तुमने शरीर को स्वयं से अलग देखा । शरीर को स्वयं से विलग देखना, स्वयं को अलग देखना, ध्यान की शुरुआत है । शरीर के प्रति रहने वाली आसक्ति और मूर्च्छा को तोड़ना ध्यान की पहली सार्थक सफलता
है ।
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