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एक साधे सब सधे
शरीर के साथ रहने वाली तादात्म्य-सत्ता के कारण ही श्वास और शरीर दोनों आबद्ध हैं। तुम हृदय-गुहा में प्रवेश कर गये, ध्यान गहरा उतर गया, अन्तर-सागर में उतर ही गये, तो श्वास की गति अत्यन्त सूक्ष्म और मन्द हो जाएगी। इतनी मन्द-शान्त होगी कि फेफड़ों को आन्तरिक ऊर्जा ही संचालित करती रहेगी। यह समाधि का ही एक रूप है। यह चीज घटित हो, तो मन की इच्छाएँ तो कम होंगी ही, शरीर की जरूरतें भी कम होंगी। ध्यान से निष्पन्न ऊर्जा, शरीर को सक्रिय और चार्ज कर देगी। भोजन-पानी से जो स्फूर्ति, ताज़गी और ताक़त मिलती है, ध्यानयोग तुम्हें वह विटामिन दे जाएगा।
मान लो, अभी तुम्हें प्यास और भूख या थकान महसूस होती होगी, शरीर शिथिल-अस्वस्थ लगता होगा, पर ध्यानयोग की एक बैठक, उसकी एक चूंटी, तुम्हें तृप्त कर देगी, ऊर्जस्वित, स्फूर्त और अधिक सशक्त कर देगी।
शरीर-भाव से अलग होने के कारण ही श्वास और शरीर हल्का, सूक्ष्म या स्थूल महसूस होता है। ध्यान पूरा हुआ, सागर की गहराई में गोता खाकर वापस किनारे पर आये, सहज दशा में, श्वास और शरीर वापस उसी अवस्था में आ जाते हैं, जैसे पहले थे, पर इस सबने शरीर और श्वास को एक अलग ही शान्ति सुकून दिया, स्वास्थ्य और आनन्द प्रदान किया। श्वास और शरीर के बीच एक पुलकभरी लयबद्धता विकसित हुई। हम कुछ नये होकर बाहर आये। फिर मुस्कराओगे तो उस मुस्कान में भी वैसी गहराई होगी, जैसी गहराई ध्यान में रही होगी। तुम्हारी आँख से बहे पानी में भी एक गहराई होगी। वाणी में भी, व्यवहार में भी दम होगा। सबके बीच तुम अपना अलग ही वजूद रखोगे, अलग ही पहचान । तुम्हारी गहराई तुम्हें ऊँचा उठाएगी। गहरे उतरो, और गहरे, इतने गहरे कि 'मणिरत्नम्' हमारे हाथ हों, हम हमारे साथ हों, संस्कार-धारा का तिरोभाव हो।
देह-भाव का विलीन होना निःश्रेयस् की ओर उठा सही-सार्थक कदम
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