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मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत
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प्रभु श्री, ध्यान में नाचना, मस्ती में झूम उठना क्यों और कैसे होता है? हम जब कुछ लोगों को नाचते हुए देखते हैं तो सब नाटक लगता है।
लगेगा ही; मीरा और कबीर के घर वालों को भी लगा था। चैतन्य के चेलों को भी लगा था। जिनके भी हृदय में नृत्य उमड़ा, उनसे जुड़े लोगों को यह सब नाटक ही लगा, पागलपन ही लगा। पहले तुम उन्हें नाटक लगे, अब वे तुम्हें नाटक लगने लगे। नाटक ही है दोनों – एक बारात के बीच का नाटक और दूसरा गिरधर को पाने का, राम की दुलहनिया हो जाने का नाटक ।
__ जब भी कोई मीरा नाची है, तो लोग उस पर हंसे ही हैं। दुनिया और कर ही क्या सकती है, सिवा हँसने-हँसाने के, ठट्ठा-मजाक करने के । राणा क्या कम हँसा मीरा पर, क्या कब फबतियाँ कसी थीं? पर उसका दीवानापन इतना जबरदस्त कि भले ही नाचना न आये, आँगन टेढ़ा हो, पर नाच फूट ही पड़ा, हृदय को कैसे रोकोगे !
कभी, जब तुम बारात में बैंड के आगे नाचते हो, जरा कभी उनसे पूछा कि तुम नाच क्यों और कैसे रहे हो, वो कहेंगे क्यों और कैसे का तो मालूम नहीं, बस ताल छिड़ा और पाँव थिरक पड़े। भूल ही गये लोकलाज, भूल ही गये कि मकान में नहीं, सड़क पर हैं, सड़क पर नाचना कोई सभ्य आदमी का काम नहीं है, पर क्या करें नाचना हो ही जाता है ।
ध्यान जब प्रेम में, भक्ति में परिणित होता है, तो वही हृदय का उत्सव बन जाता है । उत्सव में आदमी नाचेगा ही। ध्यान अगर कोरा ध्यान ही बना रहे, साक्षी का ध्यान, सजगता का ध्यान, तो नृत्य उमड़ आये, कम सम्भावना है। ध्यान जैसे ही हृदय-तल का स्पर्श करेगा, हृदय श्रद्धा और आनन्द का आधार है, प्रेम का केन्द्र है, अहोभाव उमड़ ही आएगा। आँखों से आँसुओं के निर्झर बह ही सकते हैं, करताल बज ही सकते हैं, पाँव थिरक ही सकते हैं, यही तो ध्यान का भक्ति हो जाना हुआ। ध्यान में जैसे ही तुम औरों से बेखबर हुए और हृदय से रूबरू हुए कि कुछ-न-कुछ फूटेगा, उमड़ेगा। अब वह क्या
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