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फूटेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह नृत्य एक अलग ही रूप लिये होगा, वे आँसू एक अलग ही रूप लिये होंगे, वे आँसू एक अलग ही भाव लिये होंगे, वह पीड़ा एक अलग ही अभीप्सा लिये होगी । यह 'अपूर्व' स्थिति है, अद्भुत स्थिति ध्यान और भक्ति के सामंजस्य की जीवंत घटना । एक ऐसा चमत्कार जिस पर दुनिया हँसेगी, जबकि तुम उससे एकलय, एकरस हुए, जिसके लिए ध्यान से जुड़े हो ।
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इक साधे सब सधे
ध्यान एक अलग मार्ग है, भक्ति एक अलग मार्ग है । अकेला ध्यान सजगता है, मौन है, शून्य है, बोध है, अकेली भक्ति नाम-जप है, धुन है, तीर्थों और मंदिरों में हर रोज की आवाज ही है । ध्यान और भक्ति दोनों एक हो जायें, तो जीवन कोरी एकाग्रता नहीं, वरन् एकाग्रता का उल्लास हो जाएगा । केवल शांति नहीं, वरन् शांति का उत्सव हो जाएगा। पर हाँ, यह सब करने से नहीं होता, यह अनायास घटता है । ध्यान और भक्ति का मिलाप एक आकस्मिक घटना है । मैंने स्वयं में ऐसा आनन्द, ऐसा भावनृत्य, ऐसा अहोभाव, ऐसी मस्ती को उमड़ते हुए देखा है, जाना है, जीया है ।
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पर हाँ, जो लोग ध्यान में प्रवेश करने से पहले नाचते - झूमते हैं, वह एक अलग अभ्यास है, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना। जिसकी जो मौज। पर मैं जिस भाव की बात करता हूँ, वह हर किसी के साथ घटे ही, कोई जरूरी नहीं है। घट भी सकता है, नहीं भी घट सकता । ध्यान मनुष्य को महावीरत्व की ओर, बुद्धत्व की ओर भी बढ़ा सकता है और चैतन्य और मीरा की ओर भी । ध्यान अपनी गहराई में, हमें जिस महागुहा में ले जाना चाहे, जाने ही दिया जाए; पता नहीं कौन कैसे पहुँच जाए।
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ध्यान किसी को महावीर की शांत मूर्ति बना दे, किसी के लिए बुद्धत्व का कमल हो जाये, किसी को मीरा की तरह नृत्यमय कर दे; एक के लिए दूसरा नाटक हो सकता है, पर स्वयं के लिए वह स्वयं की पूर्णता है । प्रज्ञा के मार्ग से चलने वाले लोग सजगता और आत्म-नियन्त्रणपूर्वक आगे बढ़ते हैं, हृदय से चलने वाले लोग थिरक उठें, तो कोई आश्चर्य नहीं । मीरा का हृदय हुए नहीं और ऐसे ही देखा-देखी करने लगे, तो वह नाटक ही । ऐसे नाटक से बच
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