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मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत
सको, तो अच्छा ही है ।
वज्र हृदय को कोमल हो जाना चाहिये, फूल हो जाना चाहिये और जो कोमल हृदय हैं, उन्हें निर्लिप्त हो जाना चाहिये। यह एक गुर है । जो पंडित हैं, भक्त हो जायें और जो भक्त हैं, उन्हें ध्यानी हो जाना चाहिये । रावण जब भजन में मगन हुआ, भक्ति में नाच ही उठा, झूम ही उठा, तो उसका यह नर्तन ही उसे तीर्थंकरत्व का सूत्र दे गया । जैन कहते हैं कि रावण भी, भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों में एक है । पंडित जब भक्त हो जाएंगे, मस्तिष्क से हृदय में आ जाएंगे, तो तीर्थंकरत्व स्वयं अंकुरित हो जाता है । आज जरूरत बुद्धिमानों को हृदयवान् बनाने की है । मन से हृदय, और फिर हृदय से सहस्रार - यही मार्ग है । मन के चक्रव्यूह से बचने के लिए, मुक्त होने के लिए हृदय में प्रवेश करें । हृदय जब हमारा घर हो जाये, तो हृदय से ऊपर उठ जायें। ब्रह्मकमल ऐसे ही खिलता है, ऐसा ही मार्ग लगता है ।
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मन हो मौन और हृदय हो जाग्रत, जीवन को स्वर्ग बनाने की यह चाबी है, कुंजी है । बगैर हृदय का आदमी बुझा हुआ दीया है, पत्थर का इंसान है
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· पूज्य गुरुजी, कभी-कभी लगता है नाड़ियाँ, शरीर सब टूट जाएगा, अव्यक्त तनाव-सा प्रतीत होता है, उस क्षण में क्या किया जाए क्योंकि तब ध्यान गहन होता है और एकदम चेतना के वापस आने से सिर भारी-भारी हो जाता है।
ध्यान एक प्रक्रिया है, गहरे अर्थ में प्रसूति जैसी ही प्रक्रिया समझो इसे । प्रसूति कोई ऐसे ही नहीं हो जाती । समय की एक लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है, मितली उठती है, पीड़ा जनमती है, भीतर गर्भ में हलन चलन होती है और यह सब परीक्षा के रूप में होती है । यह मातृत्व को जन्म देने की, संतति को जन्म देने की एक प्रक्रिया है ।
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