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________________ ध्यान और हम मनुष्य स्वयं से ही पराजित है, स्वयं को नहीं जीत पा रहा है। दूसरों की समस्याएँ सुलझानी हों तो बहुत आसान बात लगती है और अपनी समस्याएँ सुलझानी हों तो सिर-पाँव एक हो जाते हैं। ध्यान आपको वह कला देता है जिससे आप अपनी मानवीय समस्याएँ सुलझा सकें, उनका समाधान पा सकें । जैसे-जैसे समाधान मिले, जैसी अन्तर-आत्मा की आवाज़ उठे, वैसा करो। विज्ञान ने अनेकानेक आविष्कार किए, सुख-सुविधा के साधन दिए मगर हमें समाधान नहीं दे सका। अन्तस् के जो प्रश्न हैं उनका समाधान न दे सका। बुद्धि ने शास्त्रों का निर्माण कर दिया, लेकिन आन्तरिक कषायों से, आन्तरिक अवरोधों से, भीतर के शोरगुल और भीतर के कचरे से मुक्त होने का मार्ग नहीं दे पाए। हम इन पाँच दिनों में यह प्रयास करें कि हमारे हाथ वह मार्ग लग सके जो हमें मुक्ति की राह पर बढ़ाए। हम स्वयं में उतरें, भीतर होने का अभ्यास करें। जहाँ असली धर्म छिपा हुआ है, वास्तविक पूंजी है। जहाँ प्रकाश है और अंधकार भी । स्वयं में उतरना है, स्वयं में जीना है। ठीक वैसे ही जैसे दिनभर की उड़ान के बाद पंछी अपने नीड़ में लौट आता है । हमें भी स्वयं में लौट आना है । जीवन को अमृत-महोत्सव बनाना है। मानव जाति को वह मार्ग मिला हुआ है, जिससे गुजरकर वह अपने संचित तमस् को काट सकता है। मार्ग पूर्ण है। मार्ग से गुजरो, तो ही मार्ग फलदायी है । सूना पड़ा मार्ग तो भयावह लगता है। वह निष्फल लगता है तुम्हारे चेतन में विचार हैं, अवचेतन में तमस् है । अवचेतन के पार प्रकाश है . तुम्हारी सीमा में असीम है । काया में कायनात है। एक हाथ में तमस् है, दूसरे हाथ में प्रकाश है। प्रकाश के हाथ को तमस् की ओर बढ़ाओ, ध्यान को ध्येय की ओर उत्तरोत्तर बढ़ने दो, प्रकाश का हाथ तमस् के हाथ को अपने में समा ही लेगा। तमस् का कोहरा बुझ ही जाएगा। हमारे एक हाथ में लोहा था एक हाथ में पारस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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