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इक साधे सब सधे
पर हम उसे छूना भूल गए। बात छूने की है, बढ़ने की है, फिर लोहा, लोहा कहाँ रह पाता है । सब सोना हो जाता है। अरणि की लकड़ी में, चकमक पत्थर की छाती में ही आग समाई है। बस, गुरुकृपा ! एक चिनगारी मिल जाए, फिर तो ज्ञान की प्रचुर अग्नि मुखर हो जाएगी। तमस् से पार लगने के लिए आत्मा की ओर उठी ललक की लौ चाहिये। तमस् का बोध ही हमारी ओर से प्रकाश की पुकार होगी। अपने में है अपना साईं। अपने में है अपनी अस्मिता। हम ध्यान की
ओर बढ़ें, ध्यान हमें ध्येय की ओर ले जाएगा। दीप हो देहरी का, उस चेतना का, जो हमें बाहर-भीतर दोनों ओर से रोशन करे । रूप से अरूप की ओर आगे बढ़ाए , जीवन के परम सत्य से हमें मुखातिब करे । अन्तर्सत्य को आत्मसात् करने के लिए, उच्च सत्ता से सम्पर्क करने के लिए ध्यान सहज मार्ग है। इस मार्ग पर चलने के लिए आप उत्साहित हैं। आइये, हम और आगे बढ़ें।
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