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ध्यानयोग-विधि-२
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आँखों को दो-एक बार झपकाकर पुन: प्रयोग करें । आँखों से आँसू बहने लगे तो भी चिंतित न हों, प्रयोग जारी रखें । नाक के अग्रभाग के चारों तरफ उभरते हुए आभामंडल को देखने का प्रयास करें । दिन-प्रतिदिन के अभ्यास से यह आभामंडल, प्रकाशकण, प्रकाश-वर्तुल अथवा प्रकाश-रेखा के रूप में प्रत्यक्ष होने लगता है।
__ यह आभामंडल मनुष्य की चित्त-दशा, चैतन्य स्थिति और लेश्या-मंडल का प्रतिबिम्ब है एवं चेतना के प्रवाह की झलक है, साथ ही आज्ञाचक्र एवं प्रज्ञा-केन्द्र के सक्रिय होने का सूचक है।
एकाग्रता के इस चरण से चित्त की चंचलता शांत होती है । भावदशा एवं लेश्याओं का बोध होता है । द्वितीय चरण : अन्तर्-सजगता
१० मिनट प्रथम चरण से गुजरने के बाद हम अपनी चेतना को साँस के आवागमन के साथ जोड़ें और स्वयं को नासिका मूल स्थित प्रज्ञाकेन्द्र पर केन्द्रित रखें। धीरे-धीरे हम पाएंगे कि हमारी साँसें संतुलित और लयबद्ध हो गई हैं।
साँस के प्रति अपनी सजगता बढ़ाएँ। यह दमित मन के जागरण की स्थिति है, अत: इस सजगता से हमारे विचार-विकल्पों में एक बेचैनी, एक उथल-पुथल मचेगी, जिससे साँसों की गति में भी उतार-चढ़ाव आएँगे। वृत्तियाँ, विकल्प, विचार उठते हैं, तो उठने दीजिए। उन्हें रोकने का प्रयास न करें। हम स्वयं को हर वृत्ति, हर विकल्प, हर विचार से, यहाँ तक कि साँसों से भी अलग रखकर उन्हें तटस्थ द्रष्टा और साक्षी होकर ऐसे देखें, मानो वे हमारे विचार न होकर किसी और के हैं, हमारी वृत्ति न होकर किसी और की है। सांस लेने वाला कोई और है और विचारों को देखने वाला कोई और है।
इस प्रक्रिया से गुजरते हुए हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी अन्तर्-सजगता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होती है, विचारों एवं वृत्तियों में होने वाली उथल-पुथल स्वत: शांत होती जा रही है। साँसों में पुन: लयबद्धता और संतुलन स्थापित हो रहा है । विचारों-विकल्पों की आवृत्ति कम होती जा रही है
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