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ध्यान और हम
[संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ६-६-९६, प्रवचन]
नव ने अतीत से वर्तमान तक अंधकार से घिरे कई युगों को देखा है। अंधकार से आवृत व्यक्तित्व के अंतर्मन में, जब प्रार्थना की कोंपलें फूटती हैं तो मनुष्य अहोभाव से पुकार ही उठता है : तमसो मा ज्योतिर्गमय। हे प्रभो ! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। लेकिन प्रभु ने मनुष्य को इतनी सामर्थ्य दी है कि तुम्हारे कर्म, तुम्हारे विचार, तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे मूर्त
और अमूर्त संबन्ध ही ऐसे हों कि वे तमसो मा ज्योतिर्गमय हो जाएँ।
आज की स्थिति इतनी विकट है कि अकेला इन्सान इस गहरे अंधकार से नहीं जूझ सकता। ऐसी स्थिति में वह प्रभु को सहयोगी बनाता है और प्रार्थना करता है ले चलो हमें प्रकाश की ओर, सत् की ओर, अमृत की ओर । मैं तो द हूँ, सागर बना सको तो तुम्हारी कृपा।
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