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इक साधे सब सधे
अंगुलियों का स्पर्श मिला वह सोने में तब्दील हो गया। मिडास कांप उठा। अगर ज्यादा सोना मिल जाय तो वह भी निरर्थक हो जाता है । सम्राट ने एक बार फिर देवों से प्रार्थना की और कहा कि मुझे माफ कर दो, क्योंकि मेरे सोच-विचार केवल सोने पर केन्द्रित थे, सोने को ही मैं सब कुछ समझता था, मुझे क्षमा करें।
एक और घटना याद आती है जब ध्रुव के परिवार वाले उससे नाराज थे, सौतेली माँ फब्तियाँ कसती थी, पिता प्यार से बोलने को राजी न था, माँ भी संतुष्ट न थी। तब ध्रुव ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। जंगलों में जाकर कठोर तपस्या की कि भगवान प्रसन्न हो जाये, ताकि उसके परिवार के रूठे सदस्यों को मनाया जा सके। कहते हैं कि ध्रुव की कठोर तपस्या और तल्लीनता से अभिभूत होकर स्वयं विष्णु अवतरित हुए। भगवान ने कहा - ध्रुव, तुम जो चाहो तुम्हें मिलेगा। तुम्हारे मन में जो भी इच्छा, तुम जिस विचार को लेकर इस आराधना के लिए बैठे हो, तुम्हारा विचार पूर्ण होगा।
भगवान विष्णु ने कहा – वत्स अब अपनी आँखें खोलो। ध्रव ने आँखें खोलनी चाहीं, पर आँखें नहीं खुलीं । विष्णु ने अपना शंख ध्रुव के होठों से स्पर्श कराया। जैसे ही स्पर्श मिला ध्रुव एक अलौकिक आनंद, एक परमज्ञान से अभिमंडित हो गया। ध्रुव की आँखें खुलीं, लेकिन भगवान तब तक अतध्यान हो चुके थे। ध्रुव को अफसोस हुआ कि स्वयं परमात्मा उसके सामने आए, मगर उसने भगवान से क्या माँग लिया। ध्रुव जीवनभर यह प्रायश्चित करता रहा कि परमात्मा को पाकर भी वह परमात्मा को न पा सका। आराधना की - लेकिन उसके सही परिणाम से वंचित रहा।
परमात्मा को पाकर भी मनुष्य परमात्मा से वंचित रह जाता है क्योंकि हमारा सोच-विचार, हमारे चिंतन की दशा और दिशा या तो पैसे से जुड़ी हुई है या पद और प्रतिष्ठा से । ये तीन ही दिशाएँ हैं जिनमें मनुष्य के सोच की धाराएँ बहती रहती हैं। मेरी समझ से तो व्यक्ति यदि अपने सोच के प्रति, अपने विचारों के प्रति जागरूक हो रहा है तो यह जागृति उसकी आत्मा के प्रति ही है। तुम जिन विचारों को रात-दिन जीते हो, तुम्हारी समझ तो उनके प्रति भी नहीं है, तभी तो तुम कहते हो यह सबसे करीबी मित्र है, सबसे करीबो दुश्मन
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