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________________ विचारों की विपश्यना ४७ है। अगर सद्विचारों के मार्ग पर चल रहे हो तो वे विचार तुम्हारे मित्र हैं और दुर्विचारों के मार्ग पर बढ़ गए तो वही विचार तुम्हारे शत्रु हैं। शत्रुता और मित्रता दोनों के धरातल हमारे अपने मस्तिष्क में हैं। प्रेम और क्रोध दोनों के धरातल, दोनों की ऊर्जा-शक्तियाँ हमारे अपने ही पास हैं। अगर आप प्रेम करते हैं, तो यह मत समझो कि ऐसा करके आप किसी दूसरे को अपना बना रहे हैं। आदमी जितनी देर प्रेम से भरा हुआ रहेगा, उतनी ही देर वह प्रसन्नता और मुस्कान से सराबोर रहेगा। उसके मस्तिष्क की कोशिकाएँ उतनी ही स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट रहेंगी। अगर बार-बार क्रोध कर रहे हो, आवेश से भर रहे हो, उत्तेजना से ग्रसित हो रहे हो, तो मस्तिष्क की कोशिकाएँ जर्जरित ही होंगी। अगर कोई व्यक्ति यह चाहता है उसका मस्तिष्क हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रहे तो पहला सूत्र यही अपनाए कि आप किसी तरह का तनाव नहीं रखेंगे, क्रोध नहीं करेंगे, न ही आवेश से भरेंगे और सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे। सांसारिक कार्यों के प्रभावों से मुक्त हो – मैं तो अपनी मस्ती में मस्त । घर में सास-बहू लड़े उनका भाग्य ! मैं क्यों नाराज होऊँ ? विचार-परिवर्तन, उनके प्रति तटस्थता भी सुधार का मार्ग हो सकता है । क्रोधी आदमी का पेट कभी पूरा नहीं भरता, वह तो हमेशा भूखा ही रहता है । जो आदमी शांत-सौम्य हृदय का स्वामी है उस व्यक्ति को कभी भूख नहीं सताती, क्योंकि भूख की अनुभूति करने वाला तो तृप्त रहता है। चंचलता शांत हो चुकी है। जो मन रूप को देखकर विकल हो रहा था वह मन तो सौम्य हो चुका है, वह मन सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् का संवाहक हो चुका है। अपने विचारों के घर को सजाओ। जैसे अपने कमरे को सजाते हो, ऐसे ही अपने भीतर के घर को सजाओ। जैसे घर में अंधेरा होने पर दीया जलाते हो, बल्ब जलाते हो ऐसे ही अपने अन्तर्घट में उज्ज्वल विचारों के, सम्यक् विचारों के, संतुलित और समग्र विचारों के दीये रोशन करो । मनुष्य के भीतर कुछ अच्छे विचार होते हैं उनको कैसे बढ़ाया जाय, उनको जीवन में आचरित किया जाय, इसके प्रति सजगता चाहिए । जैसे-जैसे घर में दीये जलते जाते हैं वैसे-वैसे अंधेरा कम होता जाता है, वैसे ही अन्तर्घट में सही और सम्यक् विचारों के आने पर बुरे विचार स्वयं निकलते चले जाते हैं। बरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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