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परिवर्तन की पुरवाई
पर्ते नहीं खुलेंगी तुम बाहर तो स्वयं को सांत्वना दे लोगे, लेकिन मन के पास रूपान्तरण की, शांति की कला नहीं होगी।
है जगी कामना या सचमुच, नियति का कोई तमाशा है, क्या सोचा था पर क्या पाया,
चेतन को घोर निराशा है। जिस क्षण मनुष्य स्वयं को पहचानने की पहल करता है तब पाता है कि उसने स्वयं के लिए क्या सोचा था पर निराशा ही हाथ आई। स्वयं की अवस्था घोर निराशाजनक होती है।
आज आँख में दया के आँसू हैं, यह देखकर कि क्या सोचा था, पर क्या पाया ! सोचा तो था होगा कोई महामहिम, लेकिन निकला सोने के वरक़ में लिपटा गोबर ! इसलिए निराशा है, घोर निराशा है - चेतन को, द्रष्टा को।
काया भी थककर पसर गई पर उलझन का अवसान नहीं, प्रज्ञा के आगे झुके नयन ज्ञाता को निज का भान नहीं। अब करने दो विश्राम उसे मत छेड़ो बोझिल बातों को,
ओढ़ा दो ममता की चादर दो ओट धूप के आतप को। मृण्मय आशा बाधा देगी क्या पथ दर्शाने वाले को, कितना भी सघन हो मेघपटल, रोकेगा तीक्ष्ण प्रभाकर को? क्षणभर के मोह-तमिश्रा से वह जागेगा जगमग होकर, वह चन्द्र नहीं जो घटे-बढ़े वह तो है दिव्य दिवाकर ।
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