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उलझनों का कोई अवसान नहीं है । काया थक चुकी है। उपवास-पर-उपवास जारी हैं, खूब तप हो रहा है, पर न तो स्वयं का सान्निध्य मिला है, न स्वयं का ज्ञान, आत्मज्ञान । बस, भाषण और प्रवचन, कौमी तक़रीर भर हो रहे हैं, शब्दों के सशक्त हस्ताक्षर कहला लोगे, पर यह सब वाग्विलास होगा । इस कथित प्रज्ञा के आगे, बुद्धिमत्ता के आगे हम नतमस्तक तो होंगे, पर निज को निज का भान नहीं, ज्ञान नहीं, तो प्रज्ञा सही अर्थ में प्रज्ञा हुई ही कहाँ ! आत्म- अन्वेषण के अभाव में सारी बातें, बोझिल ही लग रही हैं। क्यों न एकदफा बोझिल बातें छोड़ ही दी जायें। जीवन की सहजता में आयें । सहज धारा में उतर आयें । सहजता को ही जीवन का योग हो जाने दें । सहजयोगी हो जायें ।
इक साधे सब सधे
स्वयं को पढ़े बिना स्वयं से वंचित ही रह जाता है 1
मनुष्य अगर किसी को नहीं पढ़ पाया तो केवल स्वयं को । यूँ तो उसने किताबों के अम्बार पढ़ लिए होंगे, केवल एक अनपढ़ा रह गया । सबको सुना, पर एक अनसुना रह गया, सबको देखा पर एक अदेखा रह गया । यह अदेखा तब ही देखा जा सकेगा जब वह अपने अन्तर्मन की ओर दृष्टि घुमाएगा। अपनी ओर आँख उठने का नाम ही अन्तर्यात्रा है । बहिर्यात्रा की कोई सीमा नहीं है, क्षितिज का कहीं अंत नहीं है, ब्रह्माण्ड की थाह नहीं है, पर अन्तर्यात्रा की सीमा है । अन्तर्यात्रा इस शरीर के विस्तार में ही होने वाली है । भगवान करे आपके जीवन में अध्यात्म के नए क्षितिज उजागर हों ।
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मन के मिरज़ा बनो । मन के मालिक न हुए, मन मौन न हुआ, मनका कोलाहल शांत न हुआ तो मन विभावों के गलियारों में जीवन को उलझाये रखेगा। प्राप्त अप्राप्त की आकांक्षा में दुष्पूर बना रहेगा ।
मैंने सुना है : एक होटल में आग लग गई। एक व्यक्ति उसी होटल में फँस गया। लोगों ने उसे बचाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन आग बढ़ती ही चली गई। फायर ब्रिगेड वालों ने उतारना चाहा पर फेंकी गई रस्सी भी जल गई । तब लोगों ने एक चादर को चारों कोनों से पकड़ा और उस व्यक्ति से
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