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परिवर्तन की पुरवाई
कहा। इस पर कूद जाओ। मगर उसने शंका की कि अगर तुमने कहीं चादर छोड़ दी तो? क्योंकि मैं तो अभ्यस्त हूँ कि जब शिक्षक कक्षा में आता था, मैं कुर्सी खिसका देता था। लोगों ने कहा कूदना हो तो कूदो, नहीं तो वहीं जलो-मरो ! मरता क्या न करता ! उसने अपना साहस बटोरा और जोर से छलांग लगा दी । पर यह क्या, वह कूदा तो था दूसरी मंजिल से और उछलकर जा पहुँचा चौथी मंजिल पर । अपने मन की पड़ताल करो, कहीं ऐसा ही तो हमारे मन के साथ नहीं हो रहा। लोगों ने सोचा चादर पर फेवीकॉल लगा दो, इस बार कूदेगा तो चिपक ही जाएगा। बेचारा एक बार फिर कूदा और नतीजा ! कपड़े तो चिपक गए और वह आठवीं मंजिल पर उछाल खाकर जा पहुँचा। तुम्हारा मन भी इसी तरह उछलता रहता है । कभी यहाँ, कभी वहाँ । मन की स्थिति बहुत विचित्र है, उसकी अराजकता भी अति विचित्र है। बाहर से तो शायद सभी पर विश्वास किया जा सकता है, पर अन्तर्मन की दृष्टि से शायद कोई भी विश्वसनीय नहीं है ।
विश्वसनीयता लाई जा सकती है अगर व्यक्ति अपने भीतर के शोरगुल को समाप्त कर ले, आंतरिक कषायों को, कर्दम को, कालिख को हटाने का प्रयास करे तो ! भीतर का शोरगुल समाप्त होने पर जो घटना घटेगी वह है परम शान्ति । ध्यान स्पष्ट तौर पर भीतर की यात्रा है । भीतर के कालिख को काटने की कारगुजारी है। जीवन को परिवर्तन की प्रवाई चाहिये, बदलाव का बसन्त चाहिये। ध्यान मृण्मय की मृत्यु है, चिन्मय का जीवन है । ध्यान अमृत है। ध्यान पर ध्यान दें। ध्यान स्वयं औषधि है – भीतर के कोलाहल को शांत करना ही ध्यान का ध्येय है, परिणाम है ।
हम समझें कि इस भीतरी शोरगल को कैसे शांत किया जाए। मन को कैसे मुक्त किया जाए या मन से कैसे मुक्त हुआ जाए। इसके लिए तीन सूत्र दूंगा – पहला, आपका मन जैसा भी है इसे पहचानो और स्वीकार करो कि आप इस प्रकार के हैं। न तो इससे परहेज करो और न ही निषेध । न कुछ पाने की, न छोड़ने की चेष्टा करो। सिर्फ यह देखो कि तुम्हारे मन की क्या स्थिति है। स्वयं में उतरकर देखो कि क्या तुम मनुष्य के रूप में विकसित हो चुके हो या अभी भी अंदर पशुता मौजूद है। अगर मनुष्य पूरा मनुष्य हो जाए तो
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