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इक साधे सब सधे
नैतिकता, धर्म, अध्यात्म की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है । पूर्ण मनुष्य होना ही परमात्मा हो जाना है । अभी तो तुम्हारा मन बंदर की तरह इस डाल से उस डाल पर कूद रहा है। पुरानी कहानियों में पढ़ा है कि पहले किसी-किसी की जान (प्राण) तोते में या इसी तरह किसी भी पक्षी में बाँध कर रखते थे। उसकी गर्दन मरोड़ो कि इधर इन्सान के प्राण भी निकले । मैं नहीं जानता कि यह कहाँ तक सच है, पर आज जो सच देखता हूँ वह यह कि लोगों की जान तिजोरियों में बँधी रहती है। तिजोरी पर हाथ लगा कि प्राण डाँवाडोल होने लगते हैं। प्राण अब पैसा हो गया है । अभी तक मनुष्य पैदा ही कहाँ हुआ है । इसे नया जन्म दिया जाना चाहिए। स्वयं के पशुत्व को पहचानने पर ही नया जन्म हो सकता है । स्वयं की पशुता को पहचानना प्रभुता की ओर बढ़ने का सार्थक कदम है।
हमें बढ़ना है आत्म-स्वरूप को पहचानने की ओर, अरूप की ओर । मन भी रूपातीत है । मन भी इन्द्रियातीत है। मन को पहचानना मन से मुक्त होने की ओर पहल है । मनोमुक्त ही, मनोमौन ही अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों को जान और जी पाता है। बस, मन की पहचान चाहिये । मन का मौन चाहिये।
दूसरा सूत्र है – मन को पहचानने के बाद उसे सम्यक् दिशा प्रदान करो। मन की गलत दिशाओं के कारण हमारे सबसे करीब होने के बावजूद मन ही हमसे सबसे अधिक दूर है, अज्ञात है। मन के रूपांतरण से ही हमारी चेतना में क्रांति घटित हो सकती है। जब तुम्हें पता है कि किसी के प्रति तुम्हारे मन में वैर-विरोध है तो उसे प्रेम में बदलो । मन को प्रेम का पाठ पढ़ाओ, उसे प्रेम से आपूरित होने दो । मन को मीरा हो जाने दो । मीरा के मन हो जाओ।
अंधकार को मिटाने के लिए प्रकाश की एक किरण ही पर्याप्त है। जहाँ-जहाँ विकार उठता है, जिनके प्रति विकार उठता है वहाँ पवित्रता की भावना लाएँ । नर और नारी के स्थान पर नारायण को खड़ा कर दो। तुम्हारी दृष्टि स्वयं ही बदल जाएगी। अपने हर कार्य को परमात्मा को समर्पित कर दो। कर्तृत्व तुम्हारा समर्पण और पूजन बन जाए। मन का सद्गुणों से श्रृंगार करो।
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