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इक साधे सब सधे
है कुछ कहा नहीं जा सकता। बाहर के व्यक्तित्व को देखकर किसी के भी अन्तर्मन को नहीं पढ़ा जा सकता। और अन्तर्मन को पढ़े बिना बाहर के व्यक्तित्व पर विश्वास भी नहीं किया जा सकता।
वह कौन खड़ा जीवन-तट पर, व्यथित हृदय और क्लान्त बदन, थक गए चरण चलते-चलते खुद से ही हारा अन्तर्मन । है बरफ जमी तन पर लेकिन अंदर तो जलता बड़वानल एक शान्त तपस्वी के मन में
अभिलाषा करती कोलाहल । मन की इसी दशा के कारण महावीर ने अपने शिष्यों से कहा था कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो संतों से भी श्रेष्ठ हैं। और मन की इसी दुर्दशा के कारण यह कहा गया कुछ संत भी ऐसे होते हैं जो गृहस्थों से भी निकृष्ट हैं। इसलिए जिस बिगड़े हुए को सुधारना है, वह मन है।
ऊपर से तो व्यक्ति शान्त-सौम्य लगता है - बर्फ-सा ठंडा, लेकिन भीतर आग सुलग रही है। भीतर बड़वानल धधक रहा है। किसी तपस्वी के मन में कैसी इच्छाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ पल रही हैं, उसे भला कोई कैसे पहचाने !
निस्तरंग आज आंदोलित है. आशा की नन्हीं कणिका से, क्यों समाधान की चाह उसे, अपराजित आत्म-प्रतिज्ञा से। अन्तर्वाला जलती रहती, मिटती नहीं उर की दाहकता, मन ऊपर-ऊपर मौन बना
अंदर तो घोर अराजकता। चेतन मन तो हमें अवश्य ही शांत लगता है, लेकिन चेतन की सुषप्त अवस्था में तो जन्मों-जन्मों की अराजकता संचित है। जब तक अचेतन मन की
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