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________________ साक्षित्व के किनारे ८५ भगवान के जीवन से जुड़ी घटना है कि उन्होंने अतिमुक्त नामक बालक को श्रमणत्व प्रदान किया। आठ वर्ष का बालक अतिमुक्त अपने अन्य साथी मुनियों के साथ जंगल में सैर करने गया। वहाँ देखा, पानी का नाला बह रहा था। उसे अपने बचपन की याद आ गई। जब वह और छोटा था, अपनी सखी चम्पा के साथ कागज की नावें बनाकर नाले में तैराया करता था। उसे याद आया, उसकी नाव चम्पा की नाव से आगे बढ़ गई, तो उसने विजय का घोष किया था लेकिन चम्पा में उसे चाँटा लगाया और कहा तेरी नौका डूब गई, मेरी नौका पार लग गई। विचारों के इस बहाव में चलता हुआ नाले के किनारे पहुँच गया और अपने हाथ का ‘काष्ठ-पात्र' नाले में उतार दिया। हाथ से पानी हटाने लगा। पात्र पानी में चलने (तैरने) लगा। पहले क्षण में भाव उठा, चम्पा ! तब भले ही मेरी नौका डूब गई हो लेकिन आज देखो मेरी नौका तिर रही है। अपनी नौका का खेवनहार मैं स्वयं हूँ। मेरी नौका पार लग रही है। हाथ से पात्र खेता जा रहा है। भावों में विशिष्ट भावदशा निर्मित हो रही है। गुण-स्थानों पर आरोहण हो रहा है । ओह ! प्रभु तुमने मुझ पर कितनी महान कृपा की, मुझ जैसे छोटे बालक को श्रमणत्व प्रदान किया। यह नदिया नहीं, संसार की नदी है और यह पात्र, पात्र नहीं मेरा जीवन है । हे प्रभु ! तुमने मुझे श्रमणत्व प्रदान किया, मेरी नौका पार लग रही है । मन मुक्ति की ओर बढ़ रहा है। परम कृपालु देव ! देखो, देखो मेरी नौका तिर गई, पार लग गई । ओह, मैं डूबने से बचा, पार लगा, मुक्त हुआ, अतिमुक्त हुआ। अन्य मनि अतिमक्त की इस क्रिया को देख उद्विग्न हो गए। भगवान से कहा, 'भन्ते आपने किस नादान बालक को संन्यास दे दिया। उसे अभी तक श्रमणत्व की मर्यादा का भी बोध नहीं है।' भगवान ने कहा, 'भिक्षुओ, तुम जिस बालक की निंदा कर रहे हो, नहीं जानते हो कि वह बालक महान पद प्राप्त कर चुका है। सभी श्रमण चौंके कि भगवन् क्या कह रहे हैं। 'हाँ, तुम सभी उससे क्षमा-प्रार्थना करो क्योंकि अब वह वास्तविक अर्थ में अतिमुक्त हो चुका है। उसने कैवल्य उपार्जित कर लिया है। वह निर्वाण के महामार्ग पर परम ज्योति के रूप में रोशन हो चुका है । वह केवली हुआ, मुक्त हआ, 'णमो सिद्धाणं' उस सिद्ध को मेरे प्रणाम है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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