________________
अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा
अब, अगर कोई ध्यान करता है तो इसका मतलब यह नहीं कि भगवान हो चुका है, सर्वार्थ सिद्ध हो चुका है। उससे भी चूक हो सकती है 1 वह अपने स्वभाव को बदलने के लिए प्रयासरत हो, पर भीतर की वृत्तियाँ, संस्कार की धारा इतनी प्रगाढ़ हो कि ध्यान के रूप में उसके द्वारा किया जा रहा पुरुषार्थ उस प्रगाढ़ता के सामने पूरा सशक्त नहीं हो पा रहा हो। धीरे-धीरे स्वभाव भी बदलेगा । ध्यान भी आखिर कोई जादुई छड़ी नहीं है कि ध्यान में जीने लगे और तुम उसे हर दृष्टि से 'परफेक्ट' देखना चाहो ।
१०३
और फिर ध्यानी अपने आपको अच्छे-बुरे की तुम्हारी दृष्टि से क्यों बाँधे, अपने अच्छे-बुरे होने का मूल्यांकन तुमसे ही क्यों करवाए। तुम्हारा क्या भरोसा, आज जो तुम्हें अच्छा लग रहा है, कल वही बुरा लगने लगे ।
ध्यान में रुचि रखने वाला स्वयं को बदलने के लिए, स्वय के उद्धार के लिए ही ध्यान को जी रहा है । तुम उसके प्रति संदेह करो या श्रद्धा, इससे उसे क्या सरोकार | उसने ध्यान के धरातल पर कदम रखा है, कदम जमा है, कदम-दर-कदम चलना भी सीखा है घर वालों को चाहिये, मित्रों को चाहिये कि वे उसका सहयोग करें, उसका स्वागत करें, उसे प्रोत्साहन दें ।
|
ध्यान मनुष्य में सत्य-बोध और समझ का विकास करता है । उस समझ से ही स्वभाव में परिवर्तन होता है। ध्यान एक पूर्ण मार्ग है, पर कभी-कभी कोई पूर्ण मार्ग भी किसी के लिए पूर्ण नहीं बन पाता । पूर्ण मार्ग और भी हैं। जब किसी एक पूर्ण मार्ग से पूर्णता न मिले, तो अन्य पूर्ण मार्गों का सहयोग भी ले लो । मुखिये के साथ सहयोगियों को भी ले लो । एक अकेला राजा काफी है, पर कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिनमें दूसरे अनुचरों का, सहयोगियों, मन्त्रियों का भी सहयोग और परामर्श लेना पड़ता है। ध्यान को तुम जीओ | पतंजलि यम-नियम पर जोर देते हैं, ये सहयोगी मार्ग हैं। इनका इस्तेमाल करो । लोग तुम्हारे प्रति क्या दृष्टिकोण रखते हैं, इसकी परवाह मत करो । तुम अपने प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हो, यह महत्त्वपूर्ण है ।
I
तू तो राम सुमिर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org