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कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम
की सुवास, उस बुद्धत्व का स्वाद सहज अवतरित होता है, जिसे मीरा प्रियतम कहती है और महावीर परम पद कहते हैं। फूल की तरह सुवासित होने के लिए फूल की तरह खिलना जरूरी होता है, सुवास पाएं उससे पहले हमें बीज से लेकर फूल तक की यात्रा को पूरा करना होगा। फिर चाहे इस यात्रा को हम मंदिर में बैठकर करें या घर में या जंगल में । आप अपनी सुविधा को देख लो । मेरा आपको भक्तिपूर्वक ध्यान में उतरने का सुझाव है।
पहले चरण में शरीर और उसकी प्रकृति, मन और उसके स्वभाव से स्वयं को अलग देखो। यह ध्यान की मूल शिक्षा है । दूसरा यह कि हृदय में स्थित चैत्यपुरुष में, भगवत्-स्वरूप में अन्तरलीन रहो - यह भक्ति की बात है। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक है। दोनों मिलकर ही प्रियतम का, परम पद का प्रकाश उपलब्ध करते हैं। चूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे। पर्दो को, परतों को हटाएँ, तो ही दर्शन है, मिलन है प्रिय का, प्रियतम का, सत्य चेतना का।
कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं है, चाहे शबरी का बुहारी लगाना हो या राजा भर्तृहरि की भृगु आश्रम में सेवा; कैसे संभव है? परिणाम तो हर कार्य के अलग-अलग नज़र आते हैं, कृपया समझाइए अलग-अलग कर्म कैसे समान
हैं?
कार्य, सिर्फ कार्य है। छोटा-बड़ा तो मनुष्य उन्हें कर लेता है। इसलिए कभी-कभी बहुत बड़े कार्य भी छोटे नज़र
आते हैं और ना कुछ लगने वाले कार्य भी महान या बड़े हो जाते हैं। बड़े कार्य तो चुटकी में पूर्ण हो जाते हैं और छोटा-सा कार्य करने में संपूर्ण जिन्दगी लग जाती है । महत्त्व इस बात का नहीं है कि कार्य क्या है । महत्त्वपूर्ण तो यह है कि कार्य के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी है। कार्य करने के लिए आपकी कितनी तन्मयता है और उसके प्रति आप कितने समर्पित हैं। कार्य तो छोटा-बड़ा है ही नहीं। यह तो हमारा समर्पण-भाव है कि किस कार्य को हम
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