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इक साधे सब सधे
तक में फ़र्क नज़र आता है, लेकिन स्नान करो तो दोनों ही नदियाँ एक जैसा निर्मल-पावन बनाती हैं, एक जैसा ही खेतों को सींचती हैं, एक जैसी प्यास बझाती हैं और दोनों ही सागर में जाकर सागर की विराटता को आत्मसात् कर लेती हैं।
महावीर का ध्यान-मार्ग और मीरा का प्रेम-मार्ग, इनमें से किसी से भी अलग होने की बात न तो मैं कह सकता हूँ और न ही स्वयं को अलग कर सकता हूँ। मुझे महावीर से भी प्रेम है और मीरा का भी ध्यान है । अथवा यूँ कह दीजिये महावीर और बुद्ध का भी ध्यान है और मीरा से भी प्रेम और अनुराग है।
ध्यान हम इसलिए करें ताकि हम पहचान सकें हमारे अन्तरमन की कैसी दशा है, भीतर में कैसी अराजकता है, चित्त में पर्त-दर-पर्त कितना नरक जमा है । चित्त की पहचान के लिए ध्यान है। जब तक हम अपने भीतर की अराजकता को नहीं पहचानेंगे, तब तक अपने पापों को परमात्मा के चरणों में कैसे समर्पित कर सकेंगे।
और फिर भटकते हुए मन से भक्ति भी कैसे करोगे। भक्ति के लिए जरूरी है कि हमारा मन शान्त हो, एकाग्र हो, निर्मल हो । ध्यान वास्तव में मन की चिकित्सा ही तो है, अन्तरमन की स्वच्छता का अभियान ही है । भक्ति तुम परमात्मा की करोगे, लेकिन वह परमात्मा कहाँ, उसका नूर कैसा, उसकी आभा से हम परिचित नहीं हैं। ध्यान उस परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने की ही तो बात कहता है और फिर परमात्मा तो नम्बर दो है । नम्बर एक तो तुम हो । अपने को न पहचाना, अपने से प्रेम न किया तो परमात्मा से प्रेम कैसे करोगे। परमात्मा को पहचानोगे कैसे । तुम्हारे साथ कोई छल-छद्म न हो जाये, प्रपंच-प्रलोभन न हो जाये, इसके लिए जरूरी है कि पहले हम अपने-आपको पहचानें, पहले अपने अस्तित्व का बोध प्राप्त कर लें। मन की चंचलता के विसर्जित होने पर अन्त:करण में जिस सहज, शांत, शून्य, मौन-रिक्त आकाश का अनुभव होता है उस स्थिति में जो स्पष्ट अनुभव और बोध होता है, वही तुम हो । और तुम्हारे इस शान्त, मौन, निर्मल हृदय-पात्र में ही उस भगवत्ता का प्रकाश, उस परम सत्ता
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