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________________ अन्तर- मौन : मुक्ति की आत्मा I है । उसका पिऊ, उसका प्रिय आ ही रहा होगा। इस दौरान प्रसाद बरस रहा है । अहोभाव के फूल खिलने दो, आनन्द के निर्झर बह लेने दो । हर क्षण तुम्हारे लिए उपहार है । मन के जंजाल में उलझे रहे, तो ये उपहार ठुकराए जाते रहेंगे। तुम प्रसाद से वंचित रहोगे । हृदय को, आँखों को, जीवन को अहोभाव से भर जाने दो। रोम-रोम अहोभाव की झंकार हो जाए ! अहोभाव का मधुरिम चाँद खिला हुआ है, तो प्रसाद का समुद्र बूँद में उतरा हुआ ही लगेगा । बूँद समुद्र में, और समुद्र बूँद में । हमारा अहोभाव, हमारा प्रेमभाव ही अनुग्रह के फूलों को स्वीकार कर पाता है । पूर्ण को पाने के लिए हमें पूर्ण में निमज्जित होना होगा । १०१ ग्रेस पूर्ण है, पर्याप्त है । तन्मयता चाहिये, अहोभाव चाहिये । मुग्ध, आनन्द-दशा चाहिये परम पूज्य महाराज सा, जब हम किसी ध्यान में उतरे हुए व्यक्ति को क्रोध करते देखते हैं या उसमें अन्य किसी भी प्रकार की रुक्षता पाते हैं तो उसके ध्यानी होने पर संदेह होने लगता है । क्योंकि ध्यान तो जहाँ तक हमारा विचार है निर्मलता और सरलता देता है, व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है आप क्या कहेंगे ? 1 ध्यान निश्चय ही निर्मलता और सरलता देता है। ध्यान तुम्हारे वज्र हृदय को सुकुमार बनाता है । वह एक ओर से निवृत्ति कराता है और दूसरी ओर प्रवृत्ति करवाता है । असद् वृत्तियों से, संसार के कीचड़ से, भीतर के दलदल से तुम्हें ऊपर उठाता है । जल में कमल का रूप दे ही देता है, मुक्ति की पाँख खोल ही देता है। जीवन में स्वस्तिकर द्वारों को खोलना ही ध्यान का कार्य है । ध्यान मनुष्य के स्वभाव से ही सीधे रूबरू होता है । स्वभाव किसी का तय नहीं होता । क्षण में क्रोध, क्षण में मुस्कान । अभी प्रेम, अभी नफरत । स्वभाव तो व्यक्ति का जैसा भी है, उसके अतीत के संस्कारों का जमा हुआ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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