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व्यक्ति अधूरा तब तक ही रहता है जब तक उसकी वृत्तियाँ कायम रहती हैं । ध्यान-साधना के द्वारा हम इन वृत्तियों को, इन अपसंस्कारों को, इस कालिमा को निर्जरित और प्रक्षालित करते हैं । आन्तरिक पूर्णता और निर्मलता से ही तीर्थंकरत्व, बुद्धत्व और संबोधि हमारे भीतर प्रकट होती है । यही हमें पूर्णता की ओर ले जाती है । पूर्ण से आते हैं और पूर्ण में समाविष्ट हो जाते हैं । ज्योति परमज्योति में आत्मलीन हो जाती है ।
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इक साधे सब सधे
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