________________
साक्षित्व के किनारे
| संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; १०-६-९६, प्रवचन]
र मनुष्य के भीतर एक पागल मन है, जो किसी नदी के प्रवाह की तरह सतत चलायमान है । कोई भी व्यक्ति किसी समूह के मध्य हो या एकान्त में, मन के भीतर अन्तर्धारा चलती ही रहती है। अन्तर्वार्ता जारी रहती है। स्वयं से तटस्थ होकर खुद से बातें करना तो चिन्तन और मनन के अन्तर्गत रखा जा सकता है, किन्त बिना लक्ष्य और बिना बोध के मन से मन की बातें तो मन का पागलपन ही है।
पागलों की किस्म अलग-अलग हो सकती है। कुछ तो प्रकट रूप में पागल होते हैं, कुछ ऐसे हैं जो अप्रकट पागल हैं। प्रकट पागल तो जिह्वा से अनर्गल बोला करते हैं, लेकिन ईमानदारी से अपने मन को पड़तालो तो पाओगे कि हमारा मन भी अनर्गल, बेमतलब/बेहिसाब बोलता ही रहता है। हम अप्रकट पागल हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org