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इक साधे सब सधे
कोई शिकायत कर जाये तो वे यही कहेंगे कि तुम इसे लार नहीं, गंगा की धार समझो। एक बार ऐसा ही हआ कि एक पंडितजी के मुँह से लार पड़ी। पास में खड़े युवक से कहने लगे यह लार नहीं गंगा की धार है। युवक दस मिनट बाद पंडितजी के पास पहुँचा और कहा, महानुभाव अपना मुँह खोलिए। पंडितजी ने सोचा कथा कुछ जमके सुनाई है, तो प्रसादी दे रहा है । उन्होंने मुँह खोला, उस युवक ने मुट्ठीभर राख पंडितजी के मुँह में डाल दी । पंडितजी थू-थू कर थूकने लगे, पूछा कि यह क्या है ? युवक ने बताया कि बारह दिन पहले ही मेरे दादाजी का देहावसान हुआ है । मुझे उनकी हड्डियाँ, उनके फूल बिसराने के लिए हरिद्वार जाना था, पर जब आपने कहा कि गंगा की धार यहीं बह निकली है तो हरिद्वार जाने की जरूरत ही क्या !
पंडितजी के पांडित्य और जीने के तौर-तरीके में विरोधाभास है। मुझे विरोधाभास कतई पसंद नहीं। जीवन तो साफ-सपाट होना चाहिए, जैसे हाथ की खुली हथेली, जैसे खुला प्रांगण। आचार और विचार के बीच फासला या दुराव होने पर तुम सोचोगे कुछ और करना कुछ और चाहोगे। जीवन में आत्म-दमन होता रहेगा। दमित आत्मा स्वयं के अंतरंग में सुख के स्रोत नहीं ढूँढ सकती। उसकी स्थिति तो स्प्रिंग जैसी होती है। स्प्रिंग को दबाया जाए दब जाती है और हाथ हटाया कि वह दुगुने वेग से उछल पड़ती है। दबाने पर, दमन करने पर तो और परेशानी बढ़ेगी । मैं भावों और विचारों को दबाने के पक्ष में नहीं हूँ।
पहले चरण में तो यही कहता हूँ कि विचारों को समझो, पहचानो। उसके बाद ही उन्हें सुधारने का कोई सूत्र ढूंढ़ा जाए। विचारों पर इसलिए बोल रहा हूँ कि दिनभर आदमी विचारों की उधेड़बुन में रहता है। वह सोचता ही रहता है । जागा है तब तो विचार चल ही रहे हैं, मगर नींद में सपनों के रूप में सोच-विचार चल रहा है। हालांकि यह गीता, ये पिटक, ये वेद, ये शास्त्र सभी हर मनुष्य को विचार की दशा से ऊपर उठने की बात कहते हैं, पर कौन विचारों से ऊपर उठ पाता है। विचार से ऊपर उठना ही तो ध्यान की अवस्था है, व्यक्ति की संबोधि है, संबोधि की सुवास और प्रकाश है । लेकिन व्यक्ति विचारों से ऊपर उठ ही नहीं पाता, निर्विकार और निर्विकल्प हो नहीं पाता।
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