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इक साधे सब सधे
चित्-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्लाद । मुखरित होता मौन में, शाश्वत सोहं नाद ।।२२ ॥ नया जन्म दे स्वयं को, साँस-साँस विश्वास । छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश ॥२३॥ मुक्ति मानव मात्र का, जीवन का अधिकार । मन की खट-पट जो मिटे, तो हो मुक्त विहार ॥२४ ॥ समझे वृत्ति-स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ। तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात ॥२५ ॥ रूप बने, बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार । जनम-जनम के योग को, दोहराया हर बार ॥२६ ॥ संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर । जरा झाँककर देख लो, अन्तस् में महावीर ॥२७॥ सोने के ये पीजरे, मन के कारागार । टूटे पर, कैसे उड़े, नभ में पंख पसार ॥२८ ।। हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास ।
आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर साँस ॥२९॥ कालचक्र की चाल में, बनतें महल मसान । फिर कैसा मन में गिला, सदा रहे मुस्कान ॥३०॥ बीते का चिन्तन न कर, छूट गया जब तीर । अनहोनी होती नहीं, होती वह तक़दीर ॥३१॥ करना था, क्या कर चले? बनी गले की फाँस । पंक सना, पंकज मिला, बदलें अब इतिहास ॥३२ ।।
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