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ध्यानयोग-विधि-२
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कोरा कागज़ ज़िंदगी, लिख चाहे जो लेख इन्द्रधनुष के रूप-सा, हो अपना आलेख ॥१०॥ ज्योति-कलश है ज़िंदगी, सबमें सबका राम । भीतर बैठा देवता, उसको करो प्रणाम ॥११॥ काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश । उतरें अन्तर्-शून्य में, थिरके उर में रास ॥१२॥ मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान । भक्ति से श्रृंगार हो, रोम-रोम रसगान ॥१३॥ मन मन्दिर इंसान का, मरघट, मन श्मशान । स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन निर्बल, बलवान् ।।१४ ।। मन की गर दुविधा मिटे, मिटे जगत्-जंजाल । महागुफा की चेतना, काटे मायाजाल ।।१५ ।। जग जाना, पर रह गये, खुद से ही अनजान । मिले न बिन भीतर गये, भीतर का भगवान ॥१६ ।। 'समझ' मिली, तो मिल गयी, भवसागर की नाव । बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ॥१७॥ मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्ष-मार्ग है ध्यान । भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान ॥१८ ॥ मनोभाव, अन्तर्दशा, समझ सका है कौन? बोले, वह समझे नहीं, जो समझे, सो मौन ॥१९॥ सद्गुरु बाँटे रोशनी, दूर करे अंधेर । अंधों को आँखें मिले, अनुभव भरी सबेर ॥२० ॥ प्रज्ञा-पुरुष प्रकाश दे, अन्तर्-दृष्टि योग। समझ सके जिससे स्वयं, मन में कैसा रोग ॥२१ ॥
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