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इक साधे सब सधे
नवकार-मंत्र के उपरान्त गुरुदेव की संबुद्ध-प्रज्ञा से सृजित अनूठी रचना 'संबोधि-सूत्र' का संगीतमय गायन ध्यान की समझ को विकसित करने में सहायक होगा ।
संबोधि-सूत्र
अन्तस् के आकाश में, चुप बैठा वह कौन ! गीत शून्य के गा रहा, महागुफा में मौन ॥१॥ बैठा अपनी छाँह में, चितवन में मुस्कान । नूर बरसता नयन से, अनहद अमृत पान ॥२॥ शान्त हुई मन की दशा, जगा आत्म-विश्वास । सारा जग अपना हुआ, आँखों भर आकाश ॥३॥ मेरा-तेरा भाव क्या, जगत एक विस्तार । जीवन का सम्मान हो, बाँहों भर संसार ॥४॥ परम-प्रेम, पावन-दशा, जीवन के दो फूल । बिन इनके यह चेतना, जमीं रजत पर धूल ।।५।। दृष्टि भले आकाश में, धरती पर हों पाँव । हर घर में तरुवर फले, घर-घर में हो छाँव ॥६॥ मंदिर का घंटा बजे, खुले सभी की आँख । दिव्य-ज्ञान के सबद दो, मिले पढ़न हर साँझ ॥७ ।। शुभ करनी हर दिन करें, टले न कल पर काम । सातों दिन भगवान के, फिर कैसा आराम? ॥८ ।। साधु नहीं, पर साधुता, पा सकता इंसान । पंक बीच पंकज खिले, हो अपनी पहचान ॥९॥
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