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चेतना का रूपान्तरण
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एकाग्रता और तन्मयता चाहिए । ध्यान को ध्येय चाहिये । यदि शारीरिक ऊर्जा संरक्षित रह सके तो निश्चित ही ध्यान में सहायक होगी। यदि वह संरक्षित-सुरक्षित नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि आप ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सकते। ध्यान का संबंध शरीर से नहीं है और वीर्य-कणों का संबंध शरीर से है । जब शरीर-भाव से स्वयं को अलग कर लिया जाता है तब शरीर के अंग विशेष में शक्ति संरक्षित रहती है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। जिसने ऊर्जा-कणों को नष्ट किया है वह ध्यान को उपलब्ध नहीं होगा यह ध्यान की शर्त नहीं है । यह तो वे कण हैं जिनका निर्माण सतत है। चाहे नष्ट हों या न हों। यह तो ऐसे ही जैसे आप किसी को रक्तदान करते हैं तो चौबीस घंटे में शरीर में उस रक्त का पुनर्निर्माण हो जाता है। इसलिए ऊर्जस्वित कण अगर निष्कासित हो भी गए हैं तो उन्हें लेकर आत्मग्लानि महसूस न करें । शरीर का अपना स्वभाव है । अपना ध्यान मन व हृदय पर केन्द्रित करें परिणामत: जाग्रत अवस्था में तो आप सुरक्षित रख ही लेते हैं, शरीर-भाव से मुक्त होने पर वह स्वप्नावस्था में भी सुरक्षित रहेगा। स्वप्न-अवस्था में निष्कासन तभी होता है जब शरीर से तादात्म्य जुड़ा होता है। ध्यान आपको मार्ग दे रहा है। संबोधि का अर्थ यही है कि वह समझ जिससे आप शरीर को अलग देख सको। उसके स्वभाव और अपने स्वभाव को अलग समझ सको। अपने स्वभाव को . समझने के बाद, अपने स्वभाव को उससे अलग देखने के बाद, अपने स्वभाव में स्थिर होने के बाद भी अगर शरीर का कोई गुण-धर्म सक्रिय होता है तो आप उसके लिए निर्दोष कहे जाएंगे।
- आप ध्यान में जीएं, ध्यान में उतरते रहें। भगवान करे आपका मनोमस्तिष्क स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो । आने वाला भविष्य आपके लिए ध्यान-मार्ग का भविष्य बने।
- 'विपश्यना' शब्द को स्पष्ट कीजिए।
विपश्यना का अर्थ है मन को अंधकार
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