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रहित करने के लिए चित्त को देखो, शरीर को ग्रंथियों से मुक्त करने के लिए शरीर को देखो, हृदय को निष्पाप करने के लिए हृदय को देखो। इन सबसे बढ़कर अपने को देखने के लिए, अपने परम शून्य को उपलब्ध करने के लिए मन, वचन, काया से अलग होकर बहिरात्मपन का त्याग करके अन्तर - स्वरूप में रमण करते हुए अपने आपको देखो ।
इक साधे सब सधे
विपश्यना का अर्थ है देखना । महावीर ने बिलकुल इसके समकक्ष शब्द दिया अनुप्रेक्षा । इसी में से 'अनु' शब्द को हटाकर प्रेक्षा- ध्यान की एक और पद्धति प्रचलित है । विपश्यना एक अच्छी ध्यान पद्वति है । जो विपश्यना में निरंतर डूबा हुआ अनवरत अभ्यासरत है, उसके लिए यह बहुत लाभदायी है ।
संबोधि-ध्यान का दूसरा चरण अन्तर- सजगता, वास्तव में आप उसे विपश्यना समझें। अन्तर - सजगता और विपश्यना में साम्यता है । ध्यान में प्रवेश के लिए, अन्तर्यात्रा के लिए प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं के प्रति सजग और शून्य होने के लिए अन्तर - सजगता और विपश्यना चामत्कारिक प्रयोग हैं। वर्तमान में जीने के लिए वर्तमान को जीने के लिए अन्तर- सजगता आवश्यक
है ।
ध्यान का सार - संदेश यही है कि व्यक्ति चित्त की चंचलताओं का भोक्ता नहीं, वरन् द्रष्टा और साक्षी भर रहे । वह उस चंचलता को देखे, उसे जीये नहीं। बहाव में बहे नहीं । महावीर की भाषा में यही अनुपेक्षा है, अनुपश्यता है । बुद्ध की भाषा में यही विपश्यना है । आप इसे साक्षी की सजगता समझें ।
आत्मा का आदि रूप क्या है और कब प्रारम्भ होता है, कृपया मार्गदर्शन
करें ।
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अरूपी का कैसा रूप, निराकार का कैसा
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