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अन्तर- मौन : मुक्ति की आत्मा
ही होगा। कोरा कागज ही तो होना है। आकाश को देखो तो अन्तर्घट में आकाश उतरने लगेगा। कोरे कागज को पढ़ो, तो कोरे कागज-सा ही चित्त उभरेगा। लिखने के नाम पर तो बहुत कुछ लिखा गया । लिखे और छ हुए को तो पढ़कर आदमी केवल तोता रटंत पंडित ही हो रहा । ज्ञान का विकास कहाँ हो रहा है? समझ का सूत्रपात कहाँ हुआ है ? ज्ञान और समझ की सुवास जीवन और उसके वातावरण को सुवासित करे तो ही जीवन के लिए उनकी उपयोगिता है ।
“कोरा कागज भेजूं कि आँखों में पूछूं” ? आँखों में पूछो, तो तुम्हारी बात में और ज्यादा दम होगा; उस प्रश्न में अपना एक परिपाक होगा; उसमें हृदय की एक गहरी भावभरी सघनता होगी । जब तुम मुझे आँखों में पूछोगे, तो मैं तुम्हें आँखों से ही जवाब दूंगा। वो, जवाब पाने से अधिक, वाणी से अधिक गहरा होगा । भाषा और वाणी की तो अपनी सीमा है । आँखों की भाषा और अधिक सक्षम हैं । जहाँ भाषा हार जाती है, वहाँ आँख कुछ कहने में, कुछ बोलने में अपने आपको समर्थ पाती है । आखिर आँखों की अपनी भाषा । आँखों में तो पूरा आकाश ही साकार है । आँख की भाषा शून्य की भाषा है; आँख की भाषा मौन की भाषा है; आँख की भाषा अन्तर् - आत्मा की भाषा है । आँख को पढ़कर हृदय को पढ़ लिया जाता है । आखिर जो हृदय में होता है, वही आँख में उभरता है
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हृदय सौम्य हो, तो आँख भी सौम्य होगी । मैं ही क्यों, कोई भी, आँख के जरिये किसी के हृदय को पढ़ सकता है । तुम संदेह - रहित और निर्विकार-भाव से किसी की आँख में देखो, तुम उसके अन्तर्मन को पढ़ ही जाओगे |
“यह वह क्या पूछूं या मौन प्रतीक्षा करूं ? " पूछने की अगर तरंग उठती हो, तो पूछ ही लो । चित्त निस्तरंग होता जाये, तो प्रश्न स्वत: ही तिरोहित होते चले जाएंगे। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होने से तुम्हें समाधान मिल जायेगा, वरन् यह कहूँगा कि तुम स्वयं ही समाधान हो जाओगे । तुम पूछते हो 'क्या मौन प्रतीक्षा करूं ? ' प्रतीक्षा की जरूरत ही नहीं है, मौन ही काफी है । बीज तो बोया ही जा चुका है, ध्यान में रहे, ध्यान जारी रहे । केवल सजगता का
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