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इक साधे सब सधे
आनंदमुग्ध सिंचन चाहिये, तरुवर स्वत: फलता है, फल और फूल स्वत: खिलते हैं।
संत बोधिधर्म ने यह जानने के लिए कि उसके शिष्यों में सत्य की कितनी पहुँच हुई है, अपने सभी शिष्यों को एकत्र किया और पूछा।
एक शिष्य ने कहा कि सत्य के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह नहीं है। स्वीकार-अस्वीकार के पार है सत्य का स्वरूप।
बोधिधर्म ने एक रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा – वत्स, तुम्हारे पास मेरी त्वचा है।
दूसरे शिष्य ने कहा – सत्य अन्तर्दृष्टि है, जिसे पाने के बाद खोया नहीं जा सकता।
गुरु ने कहा – तुम्हारे पास मेरा माँस है ।
तीसरे ने कहा – पंचभूत और पंचस्कंध – दोनों ही और दोनों से उत्पन्न सारे तत्त्व ही नश्वर और क्षणभंगुर हैं । सब कुछ शून्य है। यह शून्यता ही सत्य है । बोधिधर्म ने कहा – पुत्र, तुम्हारे पास मेरी अस्थियाँ हैं ।
और अन्त में वह खड़ा हुआ जो हकीकत में जानता था। उसने सद्गुरु के चरणों में अपना सिर रखा, मौनपूर्वक प्रणाम किया और वापस अपने आसन पर जाकर बैठ गया। बोधिधर्म ने देखा, वह चुप था और उसकी आँखें शून्य थीं। बोधिधर्म खड़े हुए। शिष्य के पाय गये, मुस्कराए, उसे अपने गले लगाया, साधुवाद देने के भाव से उसका माथा चूमा और जवाब में इतना ही कह पाये साधुवाद बेटे, साधुवाद ! तुम्हारे पास मेरी आत्मा है।
इतना पर्याप्त है।
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