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________________ देह में देहातीत ३७ है। उस भावदशा में छिद्र करना जहाँ अनहद नाद घटित हो सके। अस्तित्व अपनी पूर्णता से अन्दर प्रविष्ट हो सके। यह क्रिया नहीं, परिणति है। इसके लिए अधीर मत होइए, केवल प्रतीक्षा कीजिए, सश्रम प्रतीक्षा ! अनहद नाद आकस्मिक घटना है, चमत्कार ! गत दस वर्षों से नियमित साधना करने वाले साधक को आध्यात्मिक दृष्टि से क्रोध पर विजय प्राप्त करना कहाँ तक सहायक हो सकता है या नहीं, जबकि साधक पूर्ण स्वस्थ रहा हो ! क्रोध और साधना एक दोराहे पर खड़े हैं। काम और साधना इनका अलग दोराहा है । वैर और साधना एक अलग रास्ते पर हैं। अहंकार और साधना अलग तलहटी पर हैं। मनुष्य के भीतर अपना एक मूल संवेग होता है। सामान्यतया मनुष्य में तीन मूल संवेग होते हैं- क्रोध, भय और काम । इन तीनों में से किसी व्यक्ति में क्रोध का तापमान अधिक होता है, किसी में काम का बुखार अधिक रहता है और किसी में भय की कंपकंपी ज्यादा रहती है। __ मनुष्य को अपने मूल संवेग से युद्ध करना होता है और यही जितेन्द्रियता है। ध्यान के द्वारा पहले चरण में हम अपने मूल संवेग को पहचानते हैं। संभव है कि कोई निर्भय हो लेकिन अत्यधिक क्रोधी हो । एक व्यक्ति क्रोध बिल्कुल न करे लेकिन कामुक हो सकता है । एक न क्रोध करता है न कामी है फिर भी क्रोध विद्यमान है तो इसका अर्थ है कि जितना गहरा क्रोध है उतनी गहराई तक साधना नहीं पहुंची है। साधना ऊपर-ऊपर ही रह गई और क्रोध ठेठ अंतरंग में व्याप्त है । आपकी जड़ों में तो क्रोध जमा ही रहा । जब तक सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश करके उन जड़ों को नहीं हिलाते तब तक साधना का निखार नहीं आता। और साधना करते हुए भी साधना को समझ नहीं पाते। यह ठीक है कि साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए, साधक ही क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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