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ध्यान और हम
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तो हम उस धर्म और परम्परा से हजारों वर्ष आगे आ गए हैं या वे हजारों वर्ष पीछे छूट गए हैं। हम आरोप लगाते हैं कि वर्तमान पीढ़ी अधार्मिक है । तुम्हारे अर्थों में अधार्मिक हो सकती है, क्योंकि वह उन क्रियाकांडों में नहीं उलझना चाहती जिसे तुम धर्म कहते हो । तुम्हारी दृष्टि में पंडित-पुजारी, कथा-वाचक, महंत जो कहते हैं या जो करते-करवाते हैं वह धर्म है, पर आज का युवा उसकी वैज्ञानिकता का प्रमाण चाहता है । तुम उस पर परम्परा या धर्म के नाम से कुछ भी थोप नहीं सकते। मैं आज के युवा को अधार्मिक नहीं मानता। उनकी अपेक्षाओं को समझता हूँ । वे उस अंधकार से निकलना चाहते हैं जो उन पर लादा गया है। वे जानते हैं घुड़सवार, पैदल सेना या तीर कमान तीव्र गति वायुसेना या बन्दूक, टैंकों और मिसाइलों का मुकाबला नहीं कर सकते।
हमने उस युग में जन्म लिया है जो अतीत के सम्पूर्ण इतिहास में कभी उपलब्ध नहीं था। तब भी तथ्य यही है कि सभ्यता का जितना विकास हुआ, उतना ही अपभ्रंश भी हुआ। हमारी मर्यादा, हमारी गरिमा, हमारा अदब, हमारी शालीनता न जाने किस भिखारी की कथरी ओढ़े बैठी है कि मनुष्यता का मूल्य ही नष्ट हो गया है।
नैतिकता का ह्रास जीवन के प्रत्येक कदम पर हो रहा है । न तो नैतिक मूल्य बचे हैं और न नैतिक मर्यादाएँ। इसी कारण, नैतिकता के निषेध के कारण ही मनुष्य की आध्यात्मिक मृत्यु हुई है । अपने अमूर्त, आध्यात्मिक और नैतिक विचारों के कारण ही हम पशु से स्वयं को अलग कर पाते हैं। एक विभेद, भेद-विज्ञान हम पहचान सकते हैं। महावीर ने तो कहा कि शरीर और
आत्मा अलग है, यह भेद-विज्ञान की मूल-बुनियादी बात है, लेकिन मैं कहूँगा कि मनुष्य यह पहचाने कि पशु में और उसमें क्या भेद है, कहाँ भिन्नता है । जो मनुष्य मनुष्य के मध्य और प्राणीजगत व मनुष्य के बीच क्या विभेद है, यह नहीं पहचान पाता, मैं नहीं समझता कि वह शरीर और आत्मा के विभेद को कोई मूल्य दे पाएगा।
मैं देखता हूँ किसी पशु को और मनुष्य को । सामान्य जीवन की क्रियाएँ दोनों में एक जैसी चल रही हैं और जब तक मनुष्य इनसे ऊपर नहीं
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