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________________ ४ उठता, अपने पशुत्व से कभी मुक्त नहीं हो पाएगा। तुम जरा सलीके से, करीने से करते होगे, पर चल वही रहा है । इसलिए जिसकी अन्तर्दृष्टि में, जिसके मानसिक बोध में इतनी-सी बात भी घर नहीं कर पाई कि मनुष्यत्व और पशुत्व में क्या भेद है, उसके लिए मुक्ति के द्वार कैसे खुल पाएंगे। तुम चाहे कितनी ही ऊँची आध्यात्मिक बातें या उसूल स्थापित कर लो, तुम मुक्त नहीं हो पाओगे । पशु की मूर्च्छा सीमित और मनुष्य की असीम । पशु का क्रोध क्षणिक और मनुष्य का सुदीर्घ है। मनुष्य तो अपने क्रोध को संभाले रखता है इस जीवन में भी और अगले जन्मों में भी । पशु समय - विशेष पर ही कामासक्त होता है और मनुष्य समय - मुक्त है, उसके पास कोई मर्यादा नहीं है, संयम नहीं है, स्वयं पर कोई नियंत्रण भी नहीं बचा है, संयम नहीं बचा है । इसीलिए मैंने कहा कि मनुष्य की आध्यात्मिक मृत्यु हो चुकी है । इक साधे सब सधे 1 मेरा आपसे संवाद इस बात का प्रयास है कि तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके और यह जन्म माता-पिता के संयोग से नहीं होगा । माता-पिता केवल शरीर को जन्म देते हैं । स्वयं का जन्म हमें खुद करना होता है । आध्यात्मिक धरातल पर स्वयं का जन्म ही सार्थक जन्म है । तुम्हें अपनी आत्मा को पुनर्जन्म देना है । तुम्हें द्विज होना है । यह द्विजता बाहर से ओढ़ी हुई या वंशानुगत नहीं है । द्विज अर्थात् पुन: उत्पन्न | यह द्विजता मिलेगी ध्यान में उतरने से । अपने अंधकार के प्रति जागरूकता के बढ़ने पर ही यह आध्यात्मिक जन्म हो सकता है। हाँ, यह स्मरण रखना कि ध्यान में उतरने पर प्रकाश मिले या न मिले, अंधकार की प्रतीति हो जाए, इस बात को जरूर खयाल में रखना । प्रकाश दीक्षा के मिलने से नहीं, वरन् अंधकार को देखने से प्रकाश की दीक्षा घटित होती है । जीवन को गहराई दो। तुम सौ वर्ष जीते हो या चालीस वर्ष, क्या फर्क पड़ता है, अगर स्वयं को न पा सके । जीवन की गहराई भीतर उतरने से ही उपलब्ध होती है । मनुष्य को सागर की भांति गहरा होना चाहिए। तुम क्रोधित होते हो क्योंकि सागर न हो पाए। अगर तुम सरोवर हो गए हो तो सामने वाला कितने भी अंगारे फैंके, सब बुझ जाएंगे। तुम्हारे सरोवर को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। किसी का अंगारा होना उसका दोष है । अगर तुम भी उसके साथ अंगारा हो गये तो यह तुम्हारा दोष है । तुम्हें तो सरोवर और सागर होना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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