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ध्यान और हम
है। तुम्हारी शीतलता में जगत् के अंगारे समा जायें । तुम्हारी ठंडक सामने वाले को भी ठंडा कर दे । जीवन की गहराई से ही महावीरत्व घटित होता है, महावीर की सहिष्णुता उतरती है, जीसस का प्रेम उदित होता है, बुद्ध की करुणा हमारी चेतना में आत्मसात् होती है।
___ मनुष्य-जीवन की यह विडम्बना ही रही कि उसे धर्म और अध्यात्म से ध्यान के गुलदस्ते नहीं मिले, ध्यान का प्रशस्त मार्ग नहीं दिया गया उसे । मिले दो-चार सूत्र, कुछ पाटियाँ और क्रिया के तरीके । मैंने जहाँ तक देखा है मुझे नहीं लगता कि इन सूत्रों और क्रियाओं ने मनुष्य की चेतना में परिवर्तन किया हो, रूपान्तरण किया हो या गहराई आई हो, उसकी आंतरिक विकृतियों में आंशिक रूप से भी विचलन हुआ हो, उसका ध्येय उसे उपलब्ध हुआ हो । ध्यान हमें भीतर लाता है, स्वयं के पास लाता है, खुद के ही करीब लाता है। मंदिर जाओ तो कहीं बाहर जाना पड़ेगा, दान दो तो कुछ खर्चा करना होगा, गुरु को वंदन करने जाओ तो सिर नमाना पड़ेगा, ध्यान में कुछ भी न किया, फिर भी सब कुछ पाया है। यह तो वह माटी है जहाँ बीज भी है पता नहीं, फिर भी फूल खिलते हैं। हम जान नहीं पाते कि पर्वत कहाँ हैं फिर भी निर्झर झर रहे हैं, कलकल की किलोल, अनहद का नाद हो रहा है। कोई चीज नहीं, कोई बात नहीं, कोई उपस्थित नहीं, फिर भी मुस्कान है सतत, अकारण। यह मुस्कान खिल जाए तो जन्म-जन्म की अन्तर्व्यथा और संत्रास अनायास ही मिट जाए। यह मुस्कान स्वयं की मुस्कान है, आत्म-तृप्ति की मुस्कान है । स्वयं के विजय की, स्वयं के सान्निध्य की मुस्कान है।
जब तुम ध्यान में उतर जाते हो तो कहीं और नहीं जाते, अपने ही पास आते हो । तुम सबसे मिलो-जुलो। यह दुनिया है ही इसीलिए कि सब इन्सान एक दूसरे के करीब आएं, पर यह किस धर्मशास्त्र में लिखा है कि तुम खुद के नज़दीक न आओ, स्वयं से प्रेम न करो। मेरी दृष्टि में यदि तुमने खुद को ही प्रेम न किया तो तुम दूसरे को कैसे प्रेम कर सकोगे। स्वयं से प्रेम करके जब तुम दूसरों से प्रेम करते हो तभी तुम्हारे आत्मवान् होने की संभावना हो सकती
भगवान महावीर कहते हैं अहिंसा ही मेरा धर्म है। बुद्ध कहते हैं
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