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________________ अन्तर-प्रवेश मनुष्य के सामने उसका अतीत राजमहलों के खंडहर की तरह उपस्थित है, वहीं भविष्य का द्वार आकाश और पृथ्वी को स्पर्श करते क्षितिज की तरह मुँह खोले खड़ा है । मनुष्य बेबूझ है अपने वर्तमान से । अतीत जैसा भी रहा, हम उसके तारतम्य होते हुए भी, वह हमारा बीता हुआ, जला हुआ साया है। भविष्य कितना भी स्वर्णिम होने की संभावना लिये हो, हमारे वर्तमान की ही अनुकृति बनेगा। जिन प्रबुद्धजनों की अन्तर्दृष्टि वर्तमान को बारीकी से देख-परख और सुधार रही है वे अतीत के असत् को दुहराने के बजाय अनायास ही भविष्य के भाग्यविधाता होंगे। हमारा वर्तमान हमारे समक्ष उपस्थित है । हम अपने वर्तमान के वैभव के भी द्रष्टा हैं और उसके कालुष्य के भी। वैभव और कालुष्य आँखों के बाहर भी है और भीतर भी। सूरज के अभाव में हए अंधकार को नज़रअंदाज़ करने के लिए दीप और विद्युत की रोशनी सहज कारगर है। हमें उस सनातन तमस् को काटने के लिए देश के सिपाही की तरह सन्नद्ध होना चाहिये, जिसे आकाश से बरसती रोशनी के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता। मनुष्य के अन्तर्मन में ग्रन्थियों और वृत्तियों का एक अन्धा प्रवाह बह रहा है। मनुष्य उस प्रवाह से मुक्त होने के प्रति पुरुषार्थशील नहीं है। वह सिर्फ प्रवाह में बहना जानता है । वह स्वयं वैभवशील होने के बजाय भीतर बैठे शून्य पुरुष को वस्तुओं के वैभव में उलझाये रहता है । उसके सुख का संसार वस्तुगत हुआ है। उसकी चेतना पर वस्तु का व्यक्तित्व ही हावी हुआ है। निर्जीव उसके जीवन की जड़ बन गया है । प्रकृति पुरुष में लीलती जा रही है और पुरुष प्रकृति में बेसुध प्रगट होता चला जा रहा है। चेतना और वस्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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